राजप्रशनीयसुत्रम् | Rajprashaniya Sutram
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
284
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शरुत के अक्षरत और अनक्षरश्रूत, सज्ञीश्रुतं भौर असज्ञीभूतं भादि चौदह भेद किये गये हैं। उनमे
स्रयकश्रुत बह है जो वीतरागप्ररूपित दहै । सर्वश्, सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान् ने अपने आपको देखा एवं सभूचे लोक
को भी हस्तामलकवत् देखा । भगवान् ने सत्य का प्रतिपादन किया । उन्होंने बन्ध, बन्धहेतु, मोक्ष, और मोक्ष-
देतु का स्वरूप प्रकट किया। भगवान् कौ वह पावन वाणी मागम बन गई । इन्द्रभूति गौतम आदि प्रमुख शिष्यो
ने उस वाणी को सूत्र रूप में गुथा, जिससे आगम के सूत्रागम और अर्थागम येदो विभाग हुए । भगवान् के
प्रकीर्णं उपदेश को 'अर्थागम” और उसके आधार पर की गई सूत्ररचना 'सूत्रागम”' कहा गया। यह आग्म-
साहित्य आचार्यों के लिए महान् निधि थी। इसलिए वह 'गणिपिटक' कहलाया । उस गुम्फन के १ आचार
२. सूत्रकृत ३ स्थान ४ समवाय ५ भगवती ६ ज्ञाताधमंकथा ७ उपामकदशा ८ अन्तकृहशा ९ अनुत्तरौप-
पातिकदशा १० प्रश्नव्याकरण ११ विपाकं १२ दृष्टिवाद, ये मौलिक बारह भाग हुए, इसलिए उसका दूसरा
লাল वादशागी' है। इम तरह प्रणेता की दृष्टि से भागम-साहित्य “अग्रप्रविष्ट' और अनगप्रविष्ट' इन दो भागो
मे विभक्त हुआ । भगवान् महावीर कै प्रधान शिष्य मणधरो ने जिम साहित्य की रचना की, वह “अगप्रविष्ट' है
स्थविरो ने भगवान् महावीर की वाणी के आधार से जिम साहित्य की सरचना की वह अनगप्रविष्ट है । बारह
अगो के अतिरिक्त सारा आगमसाहित्य अन गप्रविष्ट के अन्तर्गत आता है । द्वादशागी का आगम-साहित्य मे प्रमुखतम
स्थान रहा है। वह' स्वत प्रमाण है। द्वादशागी के अतिरिक्त जो आगम हैं, वे परत प्रमाण हैं, अर्थात् जो
द्वादशागी से अविरुद्ध है वे प्रमाण हैं, शेष अप्रमाण है ।
राजप्रइनीयः नामकरण
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जेनो का आधारभूत प्राचीनतम माहित्य आभम हैं और बह श्रुत भी है ।
राजप्रश्नीयसूत्र की परिगणना अगबाह्य आगमो में की गईं है । वह द्वितीय उपाग है । आचार्य देववाचक ने इसका
নাল “रायपसेणिय' दिया है ।१४ आचायं मलयगिरि ने “रायपसेणीअ” लिखा है। वे इसका सस्कृत रूप राज-
प्रभनीयम्' करते है । सिद्धसेनगणी ने तत्त्वार्थवृत्ति मे ^राजप्रसेनकीय' लिखा है। तो मुनिचन्द्र सूरि ने “राजप्रसेनजित'
लिखा है ।
प्रक्रिपावादः एक चिन्तन
आचायं मनयगिरि ने रायपसेणीय को सूत्रृताग का उपाग माना है । उनका मन्तव्य टे कि सूत्रहृताग में
क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी प्रभृति पाखण्डियो कै লীন শী तिरेसठ मत प्रतिपादित है,
उनमे से अक्रियावादी मत को आधार बनाकर राजा प्रदेशी ने केशी श्रमण से प्रश्नात्तर किये। सूत्रकताग११ ओर
भगवती १९ मे चार समवसरणो मे एकं अक्रियावादी बताया है । वहाँ पर अक्रियावादी का अर्थ अनात्मवादी “क्रिया
के अभाव को मानने वाला, केवल चित्तशुद्धि को आवश्यकं और क्रिया को अनावश्यक मानने वाला --किया है।
स्थानाग सूत्र मे१ अक्रियावादी शब्दं का प्रयोग अनात्मवादी और एकान्तवादी दोनों अर्थों मे मिलता है । वहाँ
अक्रियावादी के एकवादी, अनेकवादी, मितवादी, निर्मितवादी, सातवादी, समुच्छेदवादी, नित्यवादी, असत्
१४ नन्दीसूत्र, सूत्र-८३
१५ सूत्रकृताग--१।१२।१
१६ भगवती-३५।१
१७ अदु अकरिरियावाई पण्णत्ता तजहा--एमावाई, अणेगावाई, भितवाई, णिम्मितवाई, सायवाई, समुच्छेदवाई,
णित्तावाई, णसतपरलोगवाई । +स्थानाग-८।२२
[ १६ ]
User Reviews
No Reviews | Add Yours...