योगदर्शनम् | Yogdarshanam

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Yogdarshanam(1964) by डिजिटल लाइब्रेरी ऑफ़ इंडिया

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाषाटीकासहित । ११ इस शंकरा निषारणक्‌ अथ कि राजस तामस वृत्ति व्युत्थान संस्कारसे अभ्यास केसे होसक्ता है ! सूजमें तु शब्द कहा है कि नहीं अभ्यास तो তে हं।ताहे किस प्रकारसे हृढ होता है! दीर्घ काछतक निनतर तप ब्रह्मचर्य विद्या श्रद्धारूप सत्कारसे सेवित होनेसे हृढ होकर स्थितिके योग्य होता है व्युत्थान संस्कार फिर उसको बाघा नहीं करते सत्कार तप बअहाचये विद्या श्रद्धाकों कहते है इसमें यह श्वाति प्रमाण है सत्कार विषयमे कहा अथोत्तरेण तपसा बह्मचय्यण श्रद्धया विद्ययात्मानमनन्विष्येति' अथ उत्त- रीक्त तप करके ब्रह्मचय करके श्रद्धा करके विद्या करके अथोत्‌ तप ब्रह्मचये श्रद्धा व विद्याह़्ग आत्माकों खोज़कर ॥ १५ ॥ दृष्ठानुश्रविकविषयवितिष्णस्य वशीकार- संज्ञा वेराग्यम ॥ १२ ॥ ष्ठ व आनुश्रविक विपयके तृष्णा राहितकी वशीकार- संज्ञा वरम्य होतार ॥ १५॥ चार्‌ प्रकारका वराग्य क्रमम हातांह. यनमान व्यातिरक एकन्द्रिय वशीकार संज्ञा अथात्‌ चार प्रकारमे वेराग्य चित्तमें प्राप्त होता है प्रथम जिस जिस भोगकी चित्तम प्रीति ह उनम इन्द्रियप्रवृत्त करनेवालेका जो भोगसे संतोष धारण करके त्याग करनेका यत्र करना है उसको यतमान वराग्य कहते है फिर कुछसे संतुष्ट होकर त्याग करनेकी व्यतिरंक संज्ञा वैराग्य कहते हँ फिर सव संसारी भोगम इन्द्रिय प्रवृत्त करनेसे मनसे उदासीन हो त्यागनेको एकेन्दरिय वेराग्य कहते हे इसक पश्चात्‌ जहांतक खी अन्नपान आदि सुख जो देखे जति ह व गुरुवाक्यस सुने व वेद वणित स्वग जादि दिन्य व अदिन्य मुख विषयमं नार परिताप इष्या दोषौको अभ्याससे साक्षात्‌ करके उनमें उदासीनता धारण करक मनकी वदाकर्‌ तृष्णा त्याग कगनेको वशीकाग्मंज्ञा वैगग्य कहते ॥ १८ \




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