भारतीय ललित कलाएं (1952) | Bharatiya Lalit Kalaan (1952)

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Bharatiya Lalit Kalaan (1952) by देवीलाल सामर - devilal samar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(प) तत्वों पर विवेचन किया गया हं । जिनका पालन श्राज भी श्रनेक चित्रकारों को करना पडता हं । बोद्ध कालीन चित्र कला:-- भारतीय इतिहास का बौद्ध काल न केवल धमं प्रचार तथा बौद्ध संस्कृति के विकास के लिए प्रसिद्ध हे वरन्‌ उसमें हमारा वह स्वर्ण युग निहित है, जिसमें मृति, शिल्प तथा चित्रकला के विकास और उत्कर्ष की सबसे श्रधिक परिस्थितियाँ उपस्थित रही हैें। यद्यपि बौद्ध धर्म ने संसार को विरक्ति का उपदेश दिया हं, फिर भो वहु उक्त कलाशञ्रों के विकास में सबसे शभ्रधिक सहा- यक हृश्रादहे। कारण यह हे किं इन विरक्त बौद्ध भिक्षुग्रों में श्रनेक एसे कलाकार थे, जिन्होंने संसार से विरक्त हीने पर श्रपनी कला को सांसारिक कार्यो मं प्रयुक्त न करकं, धामिक स्थानों को ही सजने-संवारनं मं लगाया, इन स्थानों को सुन्दर और श्राकंषक बनाना वे श्रपना धामिक कतव्य জমন্ধল थे, इसीलिये भावों की अ्रभिव्यंजना की शुद्धता और गंभीरता में बौद्ध कला का संसार की कोई भी कला मुकाबला नहीं कर सकती। अजंता की चित्रकला इसका एक ज्वलंत उदाहरण हे। उसमें चित्रकला को समस्त शास्त्रोक्त परंपराशञ्नों का पालन तो हुआ ही है, साथ ही उनसे परोक्ष में धर्म प्रचार भी हुश्रा हं । बौद्ध ग्रंथों में वणित अनेक कथाओं का चित्रण भित्ति चित्रों के रूप में करके बोद्ध भिक्षश्रों ने वही कार्य किया, जो अनेक धर्म प्रचारक उस समय देश विदेशों मे घूमकर किया करत थे । श्रजंता की २€ गुफाओं में जहाँ-जहाँ भी भित्ति चित्र विद्यमान हें, वे सब वहाँ को दिल्पकला की तरह ही, एक ही समय के चित्र नहीं हे। उनकी कला परंपरा के सूक्ष्म ऐतिहासिक परीक्षण से यह ज्ञात होता हे कि १०० ई० से ६०० ई ० के बीच की विविध शताब्दियों में वे श्रंकित किये गये हें। ये सब चित्र इन ६०० वर्षों मं प्रचलित भारतीय लोक-कला के उत्कृष्ट नमने हं । इनको रेखाश्रो मं जो शक्ति श्रौर रगो मजो ताजगौ भ्राज भी दष्टिगत होती है बह भ्रद्धितीय है। श्रजंता की कला सेकड़ों वर्षों की चित्रकला का विकसित रुप हु। उनमें कहीं प्राथमिक कला के चिन्ह नहों हें तथा वे सिद्धहस्त कलाकारों




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