अनेकान्त-49-1996 | Anekant-49-1996

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जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।

पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अनेकान्त/13 मिली होगी जिससे इसके प्राचीन शब्दरूप अनेक प्राचीन शिलालेखों में पाए जाते है । मुञ्चे लगता है कि कुछ लेखकों न अति उत्साह में इस भाषा की व्यापकता के संबंध मे भ्रान्ति उत्पन्न करने का यत्न किया है । इसका एक रूप आगम-तुल्य ग्रथो की भाषा के जैन शौरसेनी के बदले शुद्ध-शौरसेनी' की भाषिक धारणा के रूप मे 1994 से प्रकट हुआ है । इसे विचारों का विकास कहँ या जैन धर्म का दुर्भाग्य? यह भयंकर स्थिति है । इस दृष्टि से एक लेखक की नामकरण-संबंधी वैचारिक अनापत्ति अनावश्यक 8 | 8. दि. आगमतुल्य ग्रथ की पवित्रता की धारणा मे हानि : किसी भी धर्म तंत्र की प्रतिष्ठा एवं दीर्घजीविता के लिए उसकी प्राचीनता एवं उसके धर्म-ग्रथों की पवित्रता प्रमुख कारक माने जाते हैं | धर्म ग्रंथों की पवित्रता और प्रामाणिकता के आधार अनेक तंत्रों में उनकी अपौरुषेयता, ईश्वरदिष्टता या परामानवीय दौत्य माना गया है| पर, जैन-तंत्र में इसका आधार स्वानुभूति एवं आत्म-साक्षात्कार माना जाता है। इस साक्षात्कार के अर्थ और शब्द दोनों समाहित होते हैं। यदि आत्म-साक्षात्कार को हमने प्रामाणिक माना है तो अर्थ और शब्द रुपो को भी प्रामाणिक मानना अनिवार्य है। इनकी एक परंपरा होती है, उसका संरक्षण दीर्घजीविता का प्रमुख लक्षण है। हम वह परंपरा न मानें यह एक अलग बात है। पर, परंपरा में परिवर्तन उसकी पवित्रता में व्याघात है। क्या हम अपने आगमतुल्य ग्रन्थों के रूप में प्रस्फुरित जिनवाणी की जन-हित-कारणी पवित्र परंपरा को व्याकरणीकरण से आघात नहीं पहुंचा रहे हैं? हमारी दैनंदिन जिनवाणी की स्तुति का अर्थ ही तब क्‍या रह जाता है|? 9. 'दिगम्बर-आगम-तुल्य ग्रंथ तीर्थकर वाणी की परंपरा के नहीं हैं” की मिथ्या- धारणा का संपोषण : अपने आगम-तुल्य ग्रंथों की भाषा के शौरसेनीकरण से और शौरसेनी को अर्धमागधी के समानान्तर न मानने से इस मिथ्याधारणा को भी बल मिलता है कि दिगम्बर ग्रंथ तीर्थकर ओर गणधर की वाणी के रूप में मान्य नहीं किए जा सकते क्योंकि उनकी वाणी तो अर्धमागधी में खिरती रही और शौरसेनी परवर्ती है | इसलिए उनमे प्रामाणिकता की वह डिग्री नहीं है जो अर्धमागधी में रचित ग्रंथों मे है। ये ग्रन्थ परवर्ती तो माने ही जाते हे । इस धारणा से दिगम्बरत्व की जिनकल्पी शाखा स्थविर कलत्पियो से उत्तरवर्ती सिद्ध होती हे। क्या हमें यह स्वीकार्य है हम तो जिनकल्पी दिगम्बरत्व को ही मूल जैत्तधर्म मानते हे । 10. उचित ओर ग्र॑थकार-अभिप्रेत की धारणा का परिज्ञान : इस संपादन को पाठ-संशोधन भी कहा गया ह | इसका आधार संपादक के व्यक्तिगत ओचित्य की धारणा, प्रसंग तथा उनके स्वयं के द्वारा ग्रंथकार के अभिप्रेत भूतकालीन) का अनुमान लगाया गया है इससे आदर्श प्रति के आधार की नीति तो समाप्त होती ही हे. संपादक की स्वयं की अनुमेयत्व क्षमता पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है क्यों किं इसी तत्त्व पर तो विद्वानों मेँ मतभेद दृष्टिगोचर हुआ है।




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