नया चमन | Naya Chaman

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कहते थे, उनकी शायरी में फ़ारसी लफ़्ज़ों की भरमार दे। मीर और दर्द ग़ज़ल कहते थे। उन्होंने, ख़ासकर मीर ने सीधी-सादी ज़बान इस्तेमाल की है। इसके वास्ते आज तक उदू श्चायरी उनकी एहसानमन्द्‌ दै । १८ वीं सदी के अन्त में देदली दरबार का रंग फीका पड़ने छगा और यहाँ के शायर लखनऊ जाने लगे । वहाँ शायरों की बड़ी क्रद्रथी। मीर ओर सोदा का हाल हम ऊपर दे चुके हैं। उनके वाद इन्शा (इन्शा जल्ला खो), मुसहर ओर जुरअत का दौर आया। इसे हम तीसरा दौर कह सकते हैं। इसी ज़माने में सुलेमा शिकोह--जो देहली के शाहज़ादे थे--छखनऊ पहुँच गये । उनके दरबार में भी शायरों की बड़ी धूम रही । जैसे देहरी में मीर और सोदा से सुक़ाबिला रहता था, यहाँ (लखनऊ में) मुस्हफ़ो और इन्शा का सामना इुआ । राजदरबार में इन्शा की इज़्जत ज़्यादा थी ; मगर उन दिनों दरबार में हृज्ज़त बनते-बिगड़ते देर न लगती थी । कुछ ही दिनों बाद इन्शा की तरफ़ से नवाब साहब का रुख़ फिर गया ओर आखिरकार वह सन्‌ १८३३ ई. में पागल ट्टवोकर मर गये । इसी ज़माने में मीर हसन ने তর মহন্ত मसनवी लिखी। यह एक पुराने ढंग की कहानी थी जिसमें परियों, देवों आदि का ज़िक्र था। किस्सा तो उस समय की पसन्द के मुताबिक दिलचस्प था, लेकिन शायरी की ज़बान इतनो मीठी थी कि उसकी सव तारीफ़ ই । অন্তু से लोगों की तो यहाँ तक राय है कि उदू मे भाज तक इतनी अच्छी मसनवी नहीं लिखी गयी | हाँ, पंडित दयाशकर नसीम' की मसनवी “ गुलज़ारे-नसीम ” भी इसके टक्कर की मानी जाती है। इसी समय देहली में शाह नसीर की बढ़ी घूम थी। वह रखनऊ भी गये थे । उनकी खास तारीफ़ यह थी कि वे मुश्किल रदीफ़ों ओर वज़नों में ग़ज़ल कहते थे । मगर भाव ऊँचे नहीं थे । १८ वीं सदी गुज़र जाने के बाद उर्दू शायरी का चौथा दौर शुरू होता है। इस वक़्त देहली में शेख मुहम्मद इब्राहीम “ ज़ोक़ ”, मिर्ज़ा असदुछा खाँ “ ग़ालिब” ओर मोमिन खाँ '' मोमिन ”, उधर लखनऊ में झ़बाजा हैदर [२]




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