फिर निराशा क्यों | Phir Nirasha Kyon

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राक्थल ११ इन তা से सप्ट है क्रिंजो कुछ है, बढ़ मन के भीतर ही है, ' चाहर नहीं। इस मन को पाश्चाध्य बिद्वा्नों ने [12811891 श्रथति ' भस्यय-्वाद के वास से पुकारा है। परंतु पाशचात्य घिद्ठानों का वलति) इतना भंभीर और रपट नहीं, जिसमा हसएरे ऋषि-सहर्षियों का । उदाहरणतः उपय क्त उपनिषद्ञाफ्य देखें । सारा यष कि सुख-हुःख सन के बाहर नहीं है, बल्कि वे हादिक भाव हैं, जिनके उद्गम और लग का कद हमारा मन ही ॥ एक, प्रेमी श्रवनी प्रेमिका के सुखे कलिय. विकट मेकट শীলা और नेक दुःलों का सामना' करता है ; परंतु वह उन्हें. दुःख नहीं समझता । इन दोनो व्यक्रियों के सन शल्य और उदारं भाषो से अर्थात्‌ श्रगाष श्रेध शरीर पेश-मक्ति से परिपूर्ण होते हैं । टस कार्ण ज्ो दुपरों को द।वब' मालूम होता हे, वह इन्हें नहीं। इससे सिद्ध हुए कि सुखदुःख कोई स्वयं - सत्ता ,२सनेबाले' पदार्थ गहीं, बलिद्य हमारे मन. के साथ हैं, और भावों के! प्रष्ठा शुष होया हमारे अधिकार के अंतर्तत है। हम अपने इस अधिक्कार _ को बहुत कमर काम में छाते. हैं । यदि यथोचित रीति से अपनी 'शक्ति काम में क्षाई: जाय, शो. हम दुख के भावों का अधेश' रोक ' सकते है, . और सुख की সংগা चाहे जितनी अधिक कर सकते हैं ।, . ক্লোন গহ্বর আটা प्रभात्न न जानने से इस भगेक, दश्खों के घ्र, षन जते आर यष समसे नगते हैं किये दुःझ्ष- कहीं बादइर से वषुः हैं, और उसका रोकना अथा दुर करता हमत आक्रति स तदं है । | चित्त कीः चत्तियो का रोकना योगास्त्र का पदसा उपदेशे, इसका फल पूछे अनंदु-प्राप्ति हे ।. श्रीक्षष्ण' भगवान ने भी शीमज-. , गंधदूगीता में कहे। है कि दु:ख का कारण हमारी चित्त-कृचियों की আনান हीह} इनको ज्ञानी 'श्रात्मबद्ध से रोक सकता है| दुःख का. জমান इंड्रियों के विषयों पर ध्यान देना है। इस पर ध्याने




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