समयसार प्रवचन | Samaysaar Pravachan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गाथा ३०७ ११ यह श्रा गया कि मुझे तो इस घनसे आनन्द भारहा है, शसमे मलसे आनन्द आ रहा है। सो दूसरे लोग इसे न छुड़ा लें बल्कि दूसरे लोगोंसे हम छुड़ा ले; इस भावसे विवाद होता है, कलह होती है । उत्कृष्ट झ्राशय होनेपर भी जघन्य परिणमन--भेया ! इस प्रसंगमें आप यह प्रश्न कर सकते हैं तो फिर हम क्या करें--जायदाद न संभाल, उदयम न करे; धन न कमायें ? भाई ये सत्र बाते आपके विकल्पोसे नही होती । ये तो पुण्योदयक्रा ओर बाह्य समागमोफा निमित्तनेसिश्विक योग होगा तो होता हैं। आपके विकल्पसे कमायी नहीं होती है । करते हुए भी यथार्थ श्रद्धा रखना है. कि मे इन सबका फरने वाला नहीं हूं, क्‍या ऐसा होता नहीं हैं कि जो कर रहे हों वेसा आशय न हो ? हम आपको दो चार रृष्टान्त दें तव आपकी समममें आयेगा कि जो करते हैं सो ही भाव हो ऐसा नहीं है । भावमें ऊंची वात हो और करना पड़ता है नीची बात । जघन्यपरिणमनमे भी ज्ञानके सत्‌ भ्राशयके प्रदर्शक दुष्दान्‍्त--देखो एक मोटासा दृष्टान्त ले लो । विवाह होनेके बाद दसो बार लड़को ससुराल हो आई, बीसों बार हो आयी, ४० লন करीब हो गई, पर जब भी स्वसुराल जायेगी तो रो करके जायेगी घोर एेसा रोवेगी कि सुनने बालों को दथा छा जाय । पर उसके मनमे दुख है क्या ? खुशी खुशी जा री है और रो भी रही है, मनमें आशय तो हर्षका है। और कहो ढेर द्वो जाय) न लिया जाय तो खबर पहुचाती है अपने लड्कोंकों कि जल्दी आना सो लिया ले जाना; पर जाते समय रोती जरूर है। तो भाव तो है हपका और कग्तूत है रोने की । ऐसे ही ज्ञानी जीबके भाव तो र्ता है ज्ञानका। अकत त्वका कुछ कर ही नहीं सकता; ज्ञान करना, इतना ही हमारा पुरुषार्थ है, पर करना पड़ता है, मन, वचन, कायको लगाना पड रहा है, परतु भाषोंकी यथार्थ चात बसी है । ज्ञानी गृहस्थकी वृत्तिका दुष्टान्त--मुनीम लोग सेठकी दुकान पर लोगोंसे खुब बाते करते हैं, कोई खाता वाला आ जाय तो उसको मुनीम कष्टता है देखो जी हमसे तुम इतना ले गये, हमारा तुम पर्‌ इतना चाकी है, सब बातें सुनीम जी कर रहे हैं | क्या हू--बहू ये ही बातें सत्य हैं कि मुनीम जी को ही मिलना है, मुनौम जी का ही बाकी है ? वह कश्ता तो सब कुछ है, पर अन्तरसे उसे विश्वाप्त बना है कि आना जाना मेरा कुछ नहीं है । यह तो सब सेठ जी का है। तो इसी तरह ज्ञानी गृहस्थ भी घर्‌ में रहकर सारी क्रियाए करते हैं. श्योर अपना अपना वोक्तते भी है, पर यह व्यवद्वारकी भाषा है। यों कहते हैं, पर आशयमें व।त यथार्थ बची हुई हैं । शान्ति यथार्थ विद्वासकों श्रनुगासिनी--भेया ! जो जीव अपनेको




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