धर्म और संस्कृति | Dharam Aur Sanskriti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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'शास्ू-हष्टि की मयोदा ९ किया तो, उसने उस सत्पुरुष पर मेहस्वानी न की बल्कि अपनी ही कीमत बढ़ायी । किसी शश्च को मामनेवाला व्यक्ति उस शाह्न से बड़ा भी हो सकता दै ओर छोरा भी । सर जगर्दीश्षचंद बसु या सर चंद्रशेखर रामन जला कोटं प्रथम श्रेणी का वैज्ञानिक जब किसी दूसरे वेशानिक के ग्रंथ का आदर करे या उसका हवा दे, तब वह उस प्रथमे खिली हुई बात कौ इसीलिए नहीं मानता है कि वह उस ग्रंथ में पायी जाती है, बल्कि इस बुद्धि से कि दूसरें वेशनिकों का अनुभव भी उसके अनुभव की ताईद करता है। लेकिन विज्ञान के साधारण ,पण्डित जिन्हें अपना निज का कोई अनुभव नहीं है वे केवल उस ग्रंथ के आधार पर ही उस बात को - स्वीकारते हैं, इसलिये उसका प्रमाण देते हैं। यही बात আনহা पर भी लागू होती है। श्री ज्ञानेश्वर ने अमृतानुभव मै एकं जगह अपना मत बतत्य कर आगे लिखा है--“और यही शिवगीता तथा भगवतूगीता का मी मत है। लेकिन ऐसा न माना जाय कि शिव या श्रीकृष्ण के वचर्नो क आधार पर ही मैंने अपना मत बनाया है। उनके ऐसे वचन -न होते तो भी में यही कहता । तुलसीदास और रामदास, नामदेव और तुकाराम, नानक ओर कबीर ये सभी असल में वैदिक परग्परा मे प्ले हुए सन्त थये। लेकिन तुल्सादास और रामदास ने शाखं का जितना बन्धन माना, उतना नामदेव और तुकाराम ने नहीं माना और नानक और कबीर तो - उसको पार ही कर गए. सन्‍्तों की पहली जोड़ी भद्र-संल्कृति में पली ' हुईं थी और आखिर तक किसी-न-किसी रूप में उस से संख्य्न रही | “फिर भी तुलश्ीदासजी के सम ओर वाल्मीकि के राम में कितना अंतर है ! - तुल्सीदासजी अपने राम के द्वारा शम्बुक का वध न करा सके और न उनके अस्पृश्यता तथा पाकै-मेद के नियर्भो का पालन करा षके । रामदास




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