स्मरण - यात्रा | Smaran - Yatra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९५ अुस दुनियासे अछूती रहनेवाली त्यागवीरोकौ दूसरी दुनिया भी खिली हुओ थी । दिगृविजय और मार-विजय, ये दो ही चीज़ों - भुस वक़्तके छोगोंको आक्ृष्ट करती थीं। आजका रस अस जमानेके रससे अलग है। आज मनुष्य यद्यपि प्रकृति-विजय और ज्ञानकी विजयके पीछे पड़ा हुआ है, फिर भी साहित्यमें वह खासकर आत्म-परिचयका भूखा 'हें। और जिसी' दृष्टिसि आत्मकथाओं और संस्मरणोंकी अुप- , योगिताका मूल्यांकन किया जाता हं। अव मनुष्यको अुदात्त-भग्यकी खोज कम करके आत्मीयताकी अुत्कटताको वष्ट्ानेका खयाल होने लगा हे) मुञ्च जसा ग्यकिति यदि जिसके पीछे अहिसा-वृत्तिका अुवय देखे, तो पाटकोको भुसं पर आश्चर्यं नहीं करना चाहिये। ये सव विचार जव मनमें जुरते ह, भौर भुनके वातावरणमें ` जव मँ स्मरण-यात्राका विचार करता हुं तव यह्‌ प्रन भुठता है कि क्या ये संस्मरण कालके प्रवाहमें टिक सकेंगे ? महात्माओके सत्यके प्रयोग अजर-अमर हो सक्ते हँ । पत्थर पर खुदी हुी अशोकंकी विजय ओर अनुतापकी स्वीकृतियाँ हज़ारों वर्ष वाद भी जैसीकी तंसी रह सक्ती ह! सेन्ट ऑगस्टाअिनके “कन्फेशन्स साधक वृत्तिको नयी नयी सूचनां दे सक्ते हु; रूसोका आत्म- परिचय मनुष्य-हुदयको हिला. सकता हूँ; टॉल्स्टॉयके बचपनके चित्र साहित्यकलाको नयी' प्रेरणा दे सक्ते हं; ओर समाजमें सव तरहसे वदनाम हुओ ऑस्कर वाञिल्डका डी प्रोफण्डिस' भीं कल्पना-प्राण माननीय हूदयके आक्रदनके तौर पर मनुष्य दिलचस्पीके साथ पठ्‌ सकता हं! लेकिन जिस स्मरण-याव्राका সবাই सखी माकंण्डी* के सौम्य प्रवाहके समान हं। जिसमें न तो कुछ भव्य हें, न आअदात्त और न ललित ही। अिसमें ने तो गहरी खाबियाँ. हैँ और न आुत्तृंगम शिखर ही । में तो सामान्य कोटिके मनुष्यका प्रतिनिधि हूँ, वैसा ही रहना चाहता हूँ; और जिसी दृष्टिको सामने रखकर मेंने अपने अनुभवोंका यहाँ स्मरण किया ह । सामान्य मनुष्यको मुख्यतः अद्भूतं गौर असाधारण देखने-जाननेकी ` ऊ मैक नदी जौ मेरे गाँव बेलगुंदीके पाससे बहती है।




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