जैन तत्व चिन्तन | Jain Tatva Chintan

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Jain Tatva Chintan by मुनिश्री नथमलजी - Munishri Nathamal Ji

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मुनि नथमल जी का जन्म राजस्थान के झुंझुनूं जिले के टमकोर ग्राम में 1920 में हुआ उन्होने 1930 में अपनी 10वर्ष की अल्प आयु में उस समय के तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य कालुराम जी के कर कमलो से जैन भागवत दिक्षा ग्रहण की,उन्होने अणुव्रत,प्रेक्षाध्यान,जिवन विज्ञान आदि विषयों पर साहित्य का सर्जन किया।तेरापंथ घर्म संघ के नवमाचार्य आचार्य तुलसी के अंतरग सहयोगी के रुप में रहे एंव 1995 में उन्होने दशमाचार्य के रुप में सेवाएं दी,वे प्राकृत,संस्कृत आदि भाषाओं के पंडित के रुप में व उच्च कोटी के दार्शनिक के रुप में ख्याति अर्जित की।उनका स्वर्गवास 9 मई 2010 को राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ।

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जैन तत्त्व चिन्तन [৭ परिणामि-नित्यत्ववाद्‌ आगम की परिभाषा में जो गुण*० का आश्रय, अनन्त गुणों का अखण्ड पिण्ड है, वही द्रव्य है अथवा जो सत्‌्५< है--उत्पाद**, व्यय प्रौव्य युक्त है, वही द्रव्य है। इनमें पहली परिभाषा खरूपात्मक है और दूसरी अवस्थात्मक | प्रस्तुत ग्रन्थ में गुण ओर पर्याय४९ का आश्रय द्रव्य है! यह उक्त दोनो आगमिक पर्मिपाओं का सार हौ टोनो के ममन्वय কা বালব ই रव्य को परिणामि-नित्य स्थापित करना । डब्य में दो प्रकार के धर्म होते ह--सहमावी ८ यावत्‌-उन्यभावी }- गुण श्रौर क्रमावी--पर्वाय | बौद्ध सत्‌ द्रव्य को एकान्त-प्रनित्य ( निरन्तय-क्षणिक--केवल उत्पाद-बिनाश-खभाव ) मानते हैँ, उस स्थिति में वेदान्ती सत्मदार्थ-त्र्म को एकान्त नित्य | पहला परिवर्तनवाद है तो दूमरा नित्य-सत्तावाद | जेन दर्शन इन दोनों का समन्वय कर परिणामि-नित्यल्ववाद स्थापित करता है, जिसका आशय यह हे कि सत्ता भी हे और परिवर्तन भी-व्य उत्तन्न भी होता हे, नष्ट भी, तथा इस परिवर्तन मे उसका अस्तित्व भी नहीं मिटता | उत्पाद ओर विनाश फे वीच यदि कोई स्थिर आधार न हो तो हम सजातीयता-- यह वही है, का अनुभव नहीं हो सकता। यदि द्रव्य निर्विकार ही हो तो विश्व की विविधता संगत नहीं हो सकती | इसलिए, 'परिणामि- লিল” জন दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त हे । इसकी तलना रासायनिक विनान के व्रव्याज्षर्तवाद से होती हे । उसका स्थापन सन्‌ १७८६ मे (110ए०ण810/ ) नामक प्रसिद्र वेजानिक ने किया था। उसका आशय यह है कि विश्व मे द्रव्य का परिणाम सटा समान रहता है | उसमे को न्यूनाधिक्य नही हता न किसी द्रव्य का सर्वथा नाश होता हे ओर न किसी सर्वथा नये द्रव्य की उत्पत्ति | साधारण दृष्टि से जिसे हम द्रव्य का नाश हौ जाना समते ह्‌, वह उमका रूपान्तर में परिणमन मात्र हैं| उठाहग्ण के लिए. कोयला जलकर राख हो जाता हे, उसे हम साधारणतया नाश हो गया कहते ६--परन्तु वह वस्तुतः नाश नहीं हुआ बल्कि वायु मण्डल के ऑक्सिजन अझश के साथ मिलकर कार्वोनिक एसिड गैस (0ए७णआ० ^९ात्‌ 68 ) के रूप म परिवर्तित हौ जाता हे | इसी प्रकार शक्कर या नमक को पानी से घोल दिया जाय तो वह उनका भी नाश नहीं, बल्कि ठोस से द्रव रूप में परिणति मात्र समझनी चाहिए | किसी नवीन वस्तु को उत्पन्न होते देखते हैँ. -« वह भी वस्त॒ुतः किसी पूर्ववर्ती वस्तु का रूपान्तर माच है| आज द्रव्याक्तरखन्राद्‌ का यह सिद्धान्त रासायनिक




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