नीति - विज्ञान | Niti Vigyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ मान कर सकते हे । अतएव यदि साहित्यिकों ओर विद्वानोकी यह धारणा हो, तो इससे लेखकको कोई दुःख न होगा । क्योकि वह न तो भाषाका पण्डित है ओर न साहित्यका मर्मज्ञ, इसलिए उसने भाषाके सौन्दग्यकी अपेक्षा स्पष्टता पर कहीं अधिक ध्यान रक्खा हे । भाषा साहित्य या कविता पर भी लेखक अपने कुछ स्वतंत्र विचार रखता ह, परन्तु यदौ पर उनके वर्णन करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । साहित्यिक चाहे जो कुछ कहें, लेखक तो यही समझता है कि भाषाका उद्देश केवल भावोंका व्यक्त करना हैं ओर जिस भाषाके द्वारा भाव अच्छी तरहसे व्यक्त किये जा सकें वही भाषा उत्तम: है । इस पुस्तकमें लेखकने आद्योपान्त अपने इसी सिद्धान्त पर चलनेकी चेष्टा की हैं। इसी लिए साहित्यिक नियमोंके विरुद्ध उसे स्थल स्थलूपर एक ही बातको बदले हुए शब्दोंमें दो दो तीन तीन बार भी लिखना पढ़ा है । अन्तमें वह अपने सभी पाठकों ओर समालोचकोंसे क्षमा और निष्पक्षताकी प्रार्थना करता हैं। मतभेद बुरी वस्तु नहीं है--क्योंकि भिन्नता, असाइश्य या नानात्वमें ही जीवनका स्वाद हे--किन्तु दूसरोंके मतोंपर बिना विचार किये, प्रमाणोंपर बिना कुछ भी ध्यान दिये--- अपने मतसे विरुद्ध अन्य सभी मतोंकी उपेक्षा करना अवदय बुरी वस्तु दै 1 ठेखककी कदापि यह इच्छा नहीं है कि सब लोग उसीके सदृश सोचने लग जायें; बल्कि वह यह चाहता है कि सब लोग स्वतंत्रतापूवंक विचार कर सकें । लेखक जितना मूल्य अपने स्वतंत्र विचारोंका समझता है उतना ही दूसरोंके स्वतंत्र विचारोंका भी समश्षता है और इस कारण उनका यथेष्ट आदर करता है । इस पुस्तकको लिखे हुए कई वर्ष हो गये । पुस्तक लिखनेका निश्चय तो लेखकने बहुत पहले कर लिया था, परन्तु उसका आरम्भ सन्‌ १९१८ में हुआ ओर १९२० में वह प्रायः पूरी हो गई । प्रकाशकसे पुस्तकके प्रकाशित करनेकी बातोंको ते हुए भी प्रायः दो वर्ष हो गये और अब १९२३ में यह पुस्तक अनेक विघ्र वाधाओंको तै करके संसारके प्रकाशमें पदार्पण कर रही दै । लेखक- को विश्वास नही होता कि इस पुस्तकका अच्छा स्वागत होगा, तथापि कर्तव्यपा- लन समझ कर ही वह इस पुस्तकको--अपने विचारोंको जो अनेक समयसे उसके मत्तिष्कमें हलचछ मचा रहे थे--संसारमें भेजनेका साहस कर रहा है।न तो उसे पुरस्कारकी आशा है और न तिरस्कारका भय । वह सर्वथा उदासीन हे ।




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