सगर - विजय | Sagar Vijay

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Sagar Vijay by उदयशंकर भट्ट - Udayshankar Bhatt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ सगर-विजय [ पहला ভর্তির /६७./७४ / ७६ ४७ / ४ / ७ ०५८९ ৯ পা পাটি তাস /६४/७ /४ /७४ /४ /७/ ४ /४ /४/ /६४० পাটি ६४ ४ “४ / ६४ /७ /४ /“४७४ / ८४ ¬ ८ ८५ ८ + ~+ ~+ ^+ ५ पहला--नहीं मिला, ज़रूर मिलेगा | उसे मिलना ही चाहिये । विशालाक्षी उसके साथ है उसे मिलना ही होगा। आओ ढूँढें ! ( दोनों एक ओर चले जाते हैं । बाहु वहीं वृक्ष की श्रोट से निकल कर एक तरफ़ बेठ जाते हैं ) बाहु--ओ बड़ी पीड़ा है। (कमजोरी से लेट जाता है। त्रिपुर घूमता हुआ उती स्थान पर आ निकलता है । चलते चलते उस का पैर बाहु के शरीर से छू जाता है ) ओः ! जीवन स्वप्त है, मृत्यु जागरण ! आज मेरे जागरण का त्राह्ममुहूत है । त्रिपुर--यह कोन ! ( त्रिपुर ठिठक कर उधर देखता है ) जीवन स्वप्न है ओर मृत्यु जागरण | अरे, यह तो महाराज নান্ত ই! ( बाहु के पास जाता है ओर उन्हें आँख बन्द किये हुए देख कर) क्या कहा, जीवन स्वप्न है ओर मृत्यु जागरण | महाराज, महाराज ! बाहु--( अंखे खोल कर ) (महाराजः कह कर तुम किसे पुकारते हो ? महाराज एक स्वप्न था जो तुषार-कर्णों की तरह ढल कर सूख गया | महाराज एक स्वप्त था जो फूल की तरह खिला ओर डाल ते टट गया । श्राह, यदि बसन्त को पतभड़ का ज्ञान होता ! त्रिपुर--( बाहु के शरीर पर हाथ फेरता हुआ ) बड़ा अन्याय है, परन्तु यह कोन जानता हैं, न्याय-अ्रन्याय क्‍या है ! কি কি बाहु--उधर प्रतीक्षा में डूबी रानी मेरी राह देख रही होगी !




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