आधुनिक राजस्थानी साहित्य प्रेरणा - स्त्रोत और प्रवृत्तियाँ | Adhunik Rajasthani Sahitya Prena Strot Aur Pravartiya
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
334
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(5)
प्राचीन साहित्य से भिन्त भाधुनिक साहित्य की विशेषताओं पर जब विचार करते हैँ तो कई
तथ्य उभर कर सामने आते हैं, प्रवम राजस्थानी साहित्य के क्षेत्र में भी पद्य की अपेक्षा गद्य को युग
याणी को स्वर देने में अधिक सक्षम मानकर--उपन्यास, कहानो, नाटक, एकांकी, नित्रन्ध श्रादि नाना
नवीन विधानं का प्रारम्भ हुआ । यद्यपि हिन्दी की अपेक्षा राजस्थानी गद्य साहित्य की परम्परा बहुत
समृद्ध रही है झौर केवल सर्जनात्मक साहित्य के लिए ही नहों अपिनु इतिहास लेसन एवं झन्य-अन्य
उपयोगी साहित्य के लिए भी वरावर व्यवहृत होता रहा है; फिर भी श्राघुनिक राजस्थानी गद्य
साहित्य ने उससे कोई सीधी प्रेरणा ली हो, ऐसा ईनही कहा जा सकता । यह सही है कि प्राचीन
राजस्थानो में लघु और विशाल बातों को शानदार परम्परा रही है और वे जनमाघारण के मध्य काफी
लोकप्रिय भी रही हैं, क्रिन्तु उन लघु या विश्ञाल बातों से हम अर्वाचीन कहानी या उपन्यास का सबंध
किसी प्रकार स्थापित नही कर सकते । प्रथम तो आज की कहानी और उपन्यास का शित्प प्राचीन बातों
के शिल्प से सर्वथा भिन्न पाएचात्य साहित्य से सीघा ग्रहण किया हुम्मा है; द्वितीय, इनके लेखन के उदेश्य
में भी भारी अन्तर रहा है भौर तृतीय, कहानी एवं उपन्यासों का कध्प भी सर्वथा बदल हुप्रा है। कंब्य
और शिल्प की भांति इनकी शैली मे भी पर्याप्त अन्तर है। तुकान्त गद्य कौ परम्पराकौ तो भाज का
गद्यकार कभी का छोड़ चुका है, किन्तु साथ ही प्नावश्यक्र वर्शंन-विस्तार झौर पच्चीकारी की प्रवृत्ति से
भी चह मुक्त हो दफा है। वातों और लम्बी बातों से तुलनीय कहानी झौर उपन्यास के अतिरिक्त गद्य
साहित्य में प्रचलित शेष सभी विघामो का प्राचीन गद्य साहित्य से कोई सम्बन्ध नही दै, उन्द तो नवयुग
की ही उपज माना जाना चाहिये ।
आधुनिक काल में पद्म के क्षेत्र में भी गद्य की भाँति पर्याप्त परिवर्तन झाया है । अब कविता
केवल रसवादी साहित्य का सर्जन कर हो झपने दापित्व से मुक्त नहीं हो जाती, अ्रषितु उसका भुकाव
वैचारिक एवं बौद्धिक पक्ष की ब्रोर दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। बरतमान जीवन को जटिलतामों भौर
मानव भन की संश्लिप्टताओं को सही अभिव्यक्ति देने मे ही वह अपनी साथंकता समझती है । श्रये यह्
जीवन फी शाश्वत एवं सामयिक समस्याध्रों को समान रूप ने उठाती ह घौर वदने हए मानवी मूल्यों
और प्रास्थाओं की चुनौती को स्वीकारती हुई, जनसाघारण तक उन सब्र परिवर्तित स्थितियों झोर
१. प्राचीन झौर भर्वाचीन गद्य शैली के अन्तर को स्पप्ट करमे नो दृष्टि से दोनो के एक-एक उदाहरण
प्रस्तुत हैं :--
(कः) “इण भांति नौवतियाँ दौन््यू तरफाँ गड गड़ी ऊसड़वा लागी बगतररी कड़ी प्र भाचबा
लागी बड़ी-बड़ी । जिगा भाँति ढोलडी वागा नट नू' नचतची लाये तिण শাবি इस ধলা
राजपुट बट जागे, भव धावणा ज्यारों बघावण । नांवेडा उदारणा, गीवड़ा ग्रवाबणां ।”
रावत मोहकम सिंध हरोमिघोत री बात, राजस्थानी वाता : मं० सोौभाग्य्िह् शेसावत,
पृष्ठ सं० १२१
(स) “राजाों विचार करण्य लागी--प्राज धन तेरम है সহ फार्स रपचयदम | আমু नम
(झसाढ़ मुद नभ) गई तो उस्य ने परणियाँ ने पूरा तीन वस्म दिहया घर भौयों बरस
लायम्यौ । तीन वरमा में वे त्तीन बेटा घरे आया। बोसन्दरीम दिन रो मुदृदी मे । था
आँगसियाँ मार्य गिशण लागी ४ +
रूपाती राजां, शमर चूनही : न्मिह राजपुरोहित, पृष्ठ संस्था १००
User Reviews
No Reviews | Add Yours...