शैवाल | Shaival

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Shaival by रमाशंकर - Ramashanker

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[द সি प्राणों के श्वा्ों में भरकर ^ श्वासों के स्वर में उतार कर भेरी करुणा दूर देश में चली गड री, दितिज पार कर श्रीर सी- तुम गाओ, में गजं होकर मधुर ठम्दारे स्वर का सरगम रसो, रगोँ श्रोर उमगों भरी रचना प्रथ्वी के एक दी जीवधारी से सधी--मनुष्य से | मानों चित्रों में, मूतियों में, गायन में, नृत्य मे काव्य में, साहित्य में, शोध में, विनोद में, कुछ छू जाना सा है कि सिहर उठा ओर कोई पीछे खड़ा है कि जिसने धक्ेल कर कलम पर ला दिया | इस तरह अन्तर से आचल में आने वाली ओर फिर हृदय के साकेत के आगन में खेलने बाली सूं के ग्रानन्द की लाचारियां के सुकोमल आविष्कार इखीलिये कदने, खदने श्रौर रम रहने की वस्तु वन गये | इसी लिये तो जव-जव्‌ कलम, कूची या छेनी लेकर जव जव अपने ही ञ्रगों के ठुकड़े तोड़कर कलाइया घूमी रहै, सम भूमी तव तब अन्तर ही नहीं, जमीन निह्यल दो उठी है, जीभ नहीं, कागज़ वोल उठे हैं, जिज्ञासा नहीं, दौवारें ब्रह्माएड वन उठी हैं ओर उसासों से नहीं, पत्थरों पप चढ़कर सूझ्ों ने अनन्त इतिहास से आज तक विश्व की कोमलता को चुनौती दी है । रचनाकार है किं उसे कौन-कौन सी परिस्थिति गड़ नदीं उदी! ओर जगत के किस कोने पर उसकी अशुलियों पहुँच नहीं उठीं ! फौन-कोन से व्यक्ति दूख नहीं उठे ! और किन कोटि-कोटि की भावधारा उसकी काली स्याही में हिलोरे' नहीं मारने लगीं। यदि एक आदमी की आप तसवीर बनायें जिसमें रोटियों-का एक बड़ा सा पहाड़ बनायें और उसके शिखर पर उस आदमी को बैठा दें तो चाहे रोटियों के उस बड़े समूह को देखकर वह स्वय वेद्दोश हो जाय किन्तु सत्य की गिनती यह है कि वह जीवन भर में उन सव को अकेला खा गया | कितनी ही बार मनुष्य जिसे कर ले जाता है उसे सुनना तक




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