एकादषोपनिषद् | Ekadshopanishad
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18 MB
कुल पष्ठ :
392
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वृहदारण्यक-उपनिषद् (प्रथम अध्याय ) ६६३
वाला--तो होऊ, परन्तु 'मिध्य', अर्थात् पवित्र शरीर वाला होऊ।
क्योकि मृत्यु-ब्रह्य का शरीर बढ़ता जा रहा था, इसलिये इसे अश्व
कहते ह्, अश्व' का अथं हु, बढ्ना, फूलना, भौर क्योकि वह् उसे
सेध्य'--पवित्र--चाहता था, इसलिये इस विकसित सृष्ठि का नाम
अश्वमेधः हुआ । यही अहवमेध का अश्वमेधपना हं, ओर जो इस
रहस्य को समक्ता हं वही अश्वमेध कै वास्तविक-रूप को जानता हे ।
जेसे अश्वमेधः का घोडा एक वषे तक बिना रोके खुला विचरता ह,
वैसे सुष्टि-रूप-अश्व को मृत्यु-ब्रह्य ने बिना रोके बढ़ने दिया, परन्तु
फिर जसे अश्वमेध के घोड़े को वापस बुला च्या जाताहं, वसे
संवत्सर के बाद फिर उस अश्व-रूप-सृष्टि का ब्रह्य ने अपने मं ग्रहण
कर छलिया, तभी तो एक वषं बाद शीत-उष्ण-शरद्-वसन्त का चक्र फिर
दोबारा चल पडता हं ! सृष्टि का जो मुख्य--'अश्व-रूप--था उसका
तो मृत्यु-ब्रह्म ने स्वयं भोग लगाया, और जो गौण--पशु-रूप--
था उसे अन्य देवताओ के सुपुर्द कर दिया। मृत्यु-ब्रह्म तो सुर्य-चन्द्र-
पृथिवी आदि को भोगता हं, ओर सूय-चनद्र-पृथिवी आदि अन्य-
अवान्तर-जगत् को भोगते हं । इस प्रकार यहु विश्षाल-संसार सब
, देवताओं का सिचा-सिचाया प्राजापत्य-भोग हं--यह् मानो एक निर-
न्तर अश्व-मेध-यज्ञ हो रहा हं ।
-- यह् (चाहा), तत---उसके वाद, उससे, अश्वः--गति व वृद्धिवाला,
ससभेवत्--हो गया , ४यद्--जो , अरवत्--वढा था, तद्-- वह् , मेध्यम्- पवित्र,
লপা-নুক্তি का पात्र (ज्ञेय), यज्ञिय (यन्न का अधिकारी), अभूत्-हुआ, इति--
अतएव, तद्-- वह्, अशवमेधस्य--अण्वमेध (गव्द की), अदवमेधत्वम्--
अश्वमेध (अर्थ) है (जो वहने के साथ पवित्र, समङ्ञदार एवं सत्कमेकर्ता हो),
एषः ह वं-पह ही, अक्वमेधम्--अश्वमेव को, वेद-- (वस्तुत ) जानता है,
यः एनम् एवं वेद-जौ इसको इस प्रकार जानता है, तम्--उसको, अनवरुध्य--
न रुक कर (न रुकनेवाला) , एव-- ही, अमन्यत-- माना, समञ्च, तम्--उसको,
सवत्सरस्य--वषं के, परस्तात्-- वाद, आत्मने--अपने लिए, आत्मा के लिए,
आलभत--ग्रहण (स्वीकार) किया, पशुनू--पशुओ को, देवताभ्य.--देवताओ
के लिए, प्रत्यौहतू--समर्पित कर दिया, तस्मात्ू--उस कारण से, सर्वदेवत्यम्
--सव देवताओ के लिए हितकर, प्रोक्षितम--शुद्ध-पवित्र , प्राजापत्यम--प्रजा-
पत्ति-सम्बन्धी, आकभन्ते- स्वीकार करते है, लेते है, एषः ह वें--यह ही,
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