एकादषोपनिषद् | Ekadshopanishad

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Ekadshopanishad by प्रो. सत्यव्रत सिद्धांतालंकार - Prof Satyavrat Siddhantalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वृहदारण्यक-उपनिषद्‌ (प्रथम अध्याय ) ६६३ वाला--तो होऊ, परन्तु 'मिध्य', अर्थात्‌ पवित्र शरीर वाला होऊ। क्योकि मृत्यु-ब्रह्य का शरीर बढ़ता जा रहा था, इसलिये इसे अश्व कहते ह्‌, अश्व' का अथं हु, बढ्ना, फूलना, भौर क्योकि वह्‌ उसे सेध्य'--पवित्र--चाहता था, इसलिये इस विकसित सृष्ठि का नाम अश्वमेधः हुआ । यही अहवमेध का अश्वमेधपना हं, ओर जो इस रहस्य को समक्ता हं वही अश्वमेध कै वास्तविक-रूप को जानता हे । जेसे अश्वमेधः का घोडा एक वषे तक बिना रोके खुला विचरता ह, वैसे सुष्टि-रूप-अश्व को मृत्यु-ब्रह्य ने बिना रोके बढ़ने दिया, परन्तु फिर जसे अश्वमेध के घोड़े को वापस बुला च्या जाताहं, वसे संवत्सर के बाद फिर उस अश्व-रूप-सृष्टि का ब्रह्य ने अपने मं ग्रहण कर छलिया, तभी तो एक वषं बाद शीत-उष्ण-शरद्‌-वसन्त का चक्र फिर दोबारा चल पडता हं ! सृष्टि का जो मुख्य--'अश्व-रूप--था उसका तो मृत्यु-ब्रह्म ने स्वयं भोग लगाया, और जो गौण--पशु-रूप-- था उसे अन्य देवताओ के सुपुर्द कर दिया। मृत्यु-ब्रह्म तो सुर्य-चन्द्र- पृथिवी आदि को भोगता हं, ओर सूय-चनद्र-पृथिवी आदि अन्य- अवान्तर-जगत्‌ को भोगते हं । इस प्रकार यहु विश्षाल-संसार सब , देवताओं का सिचा-सिचाया प्राजापत्य-भोग हं--यह्‌ मानो एक निर- न्तर अश्व-मेध-यज्ञ हो रहा हं । -- यह्‌ (चाहा), तत---उसके वाद, उससे, अश्वः--गति व वृद्धिवाला, ससभेवत्‌--हो गया , ४यद्‌--जो , अरवत्‌--वढा था, तद्‌-- वह्‌ , मेध्यम्‌- पवित्र, লপা-নুক্তি का पात्र (ज्ञेय), यज्ञिय (यन्न का अधिकारी), अभूत्‌-हुआ, इति-- अतएव, तद्‌-- वह्‌, अशवमेधस्य--अण्वमेध (गव्द की), अदवमेधत्वम्‌-- अश्वमेध (अर्थ) है (जो वहने के साथ पवित्र, समङ्ञदार एवं सत्कमेकर्ता हो), एषः ह वं-पह ही, अक्वमेधम्‌--अश्वमेव को, वेद-- (वस्तुत ) जानता है, यः एनम्‌ एवं वेद-जौ इसको इस प्रकार जानता है, तम्‌--उसको, अनवरुध्य-- न रुक कर (न रुकनेवाला) , एव-- ही, अमन्यत-- माना, समञ्च, तम्‌--उसको, सवत्सरस्य--वषं के, परस्तात्‌-- वाद, आत्मने--अपने लिए, आत्मा के लिए, आलभत--ग्रहण (स्वीकार) किया, पशुनू--पशुओ को, देवताभ्य.--देवताओ के लिए, प्रत्यौहतू--समर्पित कर दिया, तस्मात्‌ू--उस कारण से, सर्वदेवत्यम्‌ --सव देवताओ के लिए हितकर, प्रोक्षितम--शुद्ध-पवित्र , प्राजापत्यम--प्रजा- पत्ति-सम्बन्धी, आकभन्ते- स्वीकार करते है, लेते है, एषः ह वें--यह ही,




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