समरहिल्लेक्लाव्य | SUMMERHILLEKLAVYA

SUMMERHILLEKLAVYA by याग्निक कुशवाह

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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2. समरहिल का विचार ज़ाहिर है कि जो स्कूल सक्रिय बच्चों को मेज़ों पर बैठाकर दिन भर निरर्थक विषय पढ़ाते हैं, वे बेमानी हैं। ऐसे स्कूल केवल उन के लिए अच्छे हो सकते हैं जिनका ऐसे स्कूलों में विश्वास है, उन नागरिकों के लिए जो ऐसे रचनाहीन और आज्ञाकारी बच्चे चाहते हैं जो एक ऐसी सभ्यता का हिस्सा बन सकें जहाँ सफलता का एक ही मानक होगा - पैसा। समरहिल एक प्रयोग के रूप में प्रारम्भ हुआ। पर बाद में महज़ प्रयोग नहीं रह गया। बल्कि एक प्रदर्शन स्कूल में तब्दील हुआ। इसलिए क्योंकि समरहिल यह दर्शा सका कि आज़ादी सच में कारगर है। जब मैंने और मेरी पहली पत्नी ने यह स्कूल शुरू किया उस वक्‍त हमारे मन में एक मुख्य विचार था। हमारी कोशिश यह थी कि बच्चों को स्कूल के अनुरूप ढालने के बदले स्कूल को बच्चों के अनुरूप बनाएँ। जहाँ बच्चे फिट न किए जाएँ, स्कूल ही उनको फिट हो । मैंने बरसों सामान्य स्कूलों में अध्यापन किया था। मैं उस तरीके को बखूबी जानता था। यह भी कि वह तरीका गलत है। गलत इसलिए क्योंकि वह वयस्कों की इस धारणा पर आधारित है कि बच्चा कैसा होना चाहिए, उसे कैसे सीखना चाहिए। यह धारणा उस युग में पनपी थी जब मनोविज्ञान जन्मा ही नहीं था। हम एक ऐसा स्कूल बनाने में जुटे जहाँ बच्चों को, जैसे वे दरअसल हैं, वैसे बने रहने की आज़ादी हो। यह कर पाने के लिए हमने हर तरह का अनुशासन, हर तरह का निर्देशन, सुझाव देना, नैतिक और धार्मिक उपदेश देने का मोह त्यागा। कई बार कहा गया कि हम बड़े साहसी हैं। पर सच पूछें तो ऐसा करने के लिए साहस की ज़रूरत न थी। ज़रूरत बस एक ही चीज़ की थी जो हमारे पास पर्याप्त रूप में मौजूद थी। ज़रूरत थी इस तथ्य में विश्वास की कि बच्चा दुष्ट नहीं, अच्छा होता है। चालीस वर्षों के अनुभव में बच्चों की अच्छाई में हमारा विश्वास कभी नहीं डिगा, बल्कि उसने पुख्ता हो “अन्तिम आस्था का रूप ले लिया है। मेरी दृष्टि में बच्चा स्वाभाविक रूप से विवेकशील और यथार्थवादी होता है। अगर उसे वयस्कों के सुझावों के बिना अपने भरोसे छोड़ा जाए तो जिस सीमा तक विकसित होना उसके लिए सम्भव है, वह होता है। इसी तर्क से प्रेरित हो समरहिल वह जगह बनी, जहाँ जो बच्चे स्वाभाविक रूप से विद्वान बनने की क्षमता रखते हों वे विद्वान बनें, पर जो महज़ इस लायक हों कि वे सिर्फ सड़कें साफ कर सकते हों, वे वहीं करें। वैसे अब तक कोई सड़क सफाईकर्मी हमारे यहाँ बना नहीं है। यह बात मैं दम्भ से नहीं कह रहा। मैं सच में मानता हूँ कि मैं एक मनोरोगी विद्वान के बदले एक खुश मिज़ाज सफाईकर्मी ही बनना पसन्द करूँगा।




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