खेल खेल में शिक्षा | KHEL KHEL MEIN SHIKSHA

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विष्णु चिंचालकर - VISHNU CHINCHALAKAR

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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देती है। हम अपनी संवेदन क्षमता के अनुरूप जो अनुभव ग्रहण करते हैं, जो निष्कर्ष निकालते हैं, वही हमारी सही शिक्षा है। बालक केवल मिट्टी का लोंदा नहीं है जिस पर हम अपनी इच्छा के अनुरूप कोई आकार थोपें। उसके अंदर विद्यमान प्रवृत्ति का, उसके कार्यकलापों का सूक्ष्म निरीक्षण करना जरूरी है। उसकी संवेदनशीलता को पहचानना ज़रूरी है, ताकि उसके सही विकास में हम अपना रचनात्मक योगदान दे सकें | हमारी अनावश्यक दखलंदाज़ी से उसके विकास में अवरोध पैदा होता है। अत: हमारी (पालकों तथा शिक्षकों की ) भूमिका अवरोध निर्माण की नहीं होनी चाहिए। बालक के लिए तो सारा वातावरण एकदम नया होता है। हर चीज़ उसे अनूठी लगती है और स्वाभाविक संवेदनशील प्रवृत्ति के कारण वह उसके प्रति आकर्षित होता है। बरसों से किसी वस्तु को देखते रहने के कारण उसके प्रति हमारी संवेदना शिथिल हो जाती है। इसलिए बालक की जिज्ञासा और हरकत हमें निरर्थक जान पड़ती है, और हम उसे सहयोग देने की बजाय उसे दबाने का प्रयास करते हैं। खेल की अपनी एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। खेल के दौरान ही बालकों को कई प्रकार के अनुभव प्राप्त होते हैं । उनमें से सुखद अनुभवों को वह दोहराता है । कई बार 4 वह अपनी बात को नाचते हुए कहता है। किसी वस्तु को उछालना-फेंकना, उससे दीवार पर कुरेदना, आड़ी-तिरछी कुरेदी हुई रेखाओं से बने निशानों को देखकर खुश होना, उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति का हिस्सा है। इन हरकतों से वह किस प्रकार का अनुभव पा रहा है, किस भावना को व्यक्त कर रहा है, इसकी हम ठीक-ठीक कल्पना नहीं कर पाते। हमें दिखाई देती है केवल बिगड़ी हुई ज़मीन और दीवारें। हमें नज़र आती हैं उसकी बेमतलब की उछलकूद और बेहूदगी। ऐसी स्थिति में हमें झल्लाने और नाराज़ होने की बजाय उसका सहयोग करना चाहिए। उसके लिए उचित सामग्री जुटकर इन हरकतों को सही दिशा में मोड़ा जा सकता है।




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