भारत में राष्ट्रीय प्रश्न और आदिवासियों के राष्ट्र की समस्या | BHARAT MEIN RASHTRIYA PRASHN AUR AADIVASIYON KE RASHTRA KI SAMASYA

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सीताराम शास्त्री -SITARAM SHASTRY

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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2 प्रत्येक साज्राज्यवांदी दुाग्य के खिलाफ प्रत्येक जन आंदोछन का किस प्रकार इल्तेमाल कर सकते हैं दो हम वड़े कच्चे कांतिकारी साबित होंगे ।”] -झआंव की मांग और मार्क्सवाद-लेनिनबाद_ आरत में कम्युनिष्टों के नेदूल्व में हुआ गशय गहान कांतिकारी संग्राम “पैलंगाना कांति” के गाम से अमर है। तेलंगाना-कांति में आंध्रा के कस्बु- निस्दों ने “विशाल-ऑँधा” का राष्ट्रीय नारा दिया था जो तेलगाना-कांति के प्रदुख आधारों में एक था। “विशाल आंधा” के राष्ट्रीय नारे ने वेलुगू राष्ट्र के अंदर एक महान और प्रबल ऋतिकारी प्रं रणा को जन्म दिया था। भारत जैसे बहु-राष्ट्रीय देश को जिसी राष्ट्रीय समस्या को कम्युनिस्ट पार्टी साज्राज्य- वाद-सामंतवाद विरोधी क्रांति का एक आधार किस प्रकार बना सकतीं है-- इसका वह भ्रवम छदाहरणं था। छेकिन आंप्रा के कम्युनिष्ट अपनी इस छाइन को--राष्ट्रीय प्रदान को साम्राज्यवाद-सागंतवाद 'विरीघी क्रांति का एक आधार दताने के छाइन कौ-अखिल भारतीय रूप तहीं दे सके। १९६७ ई० में दकपजेबाड़ी में कंति की चिंतगारियाँ फटने के बाद चारू मर्मदार के नेतृत्व मे मारतीय कम्मुनिह्‌ट पार्टी ( माक्सवादी-छेनिययादी ) तथा क्राति- कारी शिविर के अन्य कम्युनिस्ट-सगठनों पे तेलगाना-क्राति में राष्ट्रीय प्रश्न के महत्व से कोई शिक्षा नहीं प्रहण को । क्षाज़ भारत के कम्युतिस्ट ऋांतिकारी संगठन राष्ट्रों के आत्मनिणेय के अधिकार के सिद्धांत को मानते हैं जौर आधा देश में ही अदिवात्तियों के बीच उन्होंने ऋतिकारी संगठन बनाने और आंदोलन चलाने का भी काम किया है। लेकिन राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार के सिद्धांत के प्रति अपनी यांतिक समझदारी के कारण वे इस विद्धांत का काँतिकारी उपयोग करते में असमर्थ सिद्ध हुए। जिस प्रकार “विद्याल आंध्रा” के राष्ट्रीय नारे ने समस्त तेलुगु राष्ट्र में एक महान ऋांतिकारी तृफान- का सृक्षा क्रिया था, हसी प्रकार जांध्ा में रहनेवालीःउत्पौड़ित आदिवासी डाष्ट्रीयताजों के परथक प्रांत के रूप मे राष्ट्र के संगठन का नारा भी उनमें एक टिकराउ ओर महान ऋतिकारी तूफान का सृजन कर सकता है--इसे समझ पाले में वे असमर्थ रहे। -इसके क्या कारण हैं? *... इसका प्रथम और सर्वोच्च कारण यह है कि वे अर्थात्‌ मौकुदा भारतीय (२ू ) मल क्रांतिकारी संगठन राष्ट्रीय प्रदन के महस््व को ही नही समझते हैं। लि आदिवाहियों के प्रांत के प्रदान को नहीं उठाया है, लेकिन उन्होंने आदिवासियों के राजनीतिक अजवाव के अधिकार के श्रइत को भी नहीं डठाया। नाभी रेट्टी ने अपते राजनीतिक दस्तावेज में आदिवासियों के प्रदन तथा राष्ट्रीय श्रस्त (ट्राइवल क्वेश्चत तथा नेशनल्ः प्रॉब्लम के शौपेक से दो परिच्छेद लिखे हैं। आदिवासियों के प्रदन शीर्षक के अंतर्गत नागी रेड्टी आदि- बच्चियों के सिर्फ वर्गीय झोषण केंग्रदन को उठ्या जो कि समस्त भारत के राष्टों के वर्गोय शोषण के सामान्‍य वर्ग प्इन का ही एक अंग है। नागी रेही जै आदिवासियों के राष्ट्रीय परत को उठाया हो नहीं, उनकी असमानता और अछगाव तआ अकेलेपन की समस्या को देखा भी तहीं। अपने राष्ट्रीय प्रदन के सीष॑क के अंतर्गत उन्होंने राष्ट्रों के आत्मनिणंय के अधिकार के प्रश्न को डठागा है और यह सही समझदारी भी दिखलाई है, जो कि बहुत-से कम्युनिस्ट भरियों को नहों है, कि अलग होने के अधिकार का सतलब अलग हो आना ही तहीं होता । तागा रेही ते भारत के सभी राष्ट्रों की जतताओों और उनके सवंहाराओं की एकता पर बल दिया है जो उचित ही है। लेकिन डुर्भात्य से तागी रेड्ी ने आदियासी राष्ट्रों के राष्ट्रीय प्रर्त को यहाँ भी नहीं छठाया जबकि उन्होंने हिन्दी भाषी राज्यों के राष्ट्रीय प्र को डठाया है। राष्ट्रीय प्रदत् पर उनकी सबसे बड़ी कमओोंरी यह हैं कि राष्ट्रीय प्रदनों के हल में उल्होंते कम्युनिस्डों की, सर्वहाराव्ग की पार्टी की चेतन और सक्रिय शुमिका को जिस पर कि स्तालिन ने इतन। जोर दिया है, एकदम नजरभंदाज करू दिया है। इसके अल्वा, उन्होंने यह आश्या तो बंधाई है कि जनवादी क्रांति के बाद राष्ट्रीय समस्याओं का हक हो जाएगा; लेकिन यह हल किस अ्रकार का होगा और कैसे होगा, यह नहीं लिखा है। आदिवासियों के राष्ट्रीय प्रवनत और उसके महत्त्व को नहीं समझते के अछ्)वा कुछ कम्पुतिस्ट कांतिका रियों को एक मुश्यः आपत्ति यह है कि झात्म- के अधिकार की गांधू, र/ननीतिक अक्तगाब की मांग, एक ऋतिकारी आँग है लेकिन प्रांत की मांग, स्वायत्तता को मांग, एक संवेधानिक लौर झुधारवादी मांग है। इसलिए वे आदिवासियों के छिए अछण प्रांत की मांग का बिरोध करते हैं और प्रस्ताव करते हैं कि सभी प्रकार के आथिक ओषणों से सुषित पाने के लिए आदिवासियों को साम्रा्यवाद के खिलाफ




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