मेहनतकश को किताबें चाहियें | MEHNATKASHON KO KITABEN CHAHIYE

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सीताराम शास्त्री -SITARAM SHASTRY

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ८5 ) अपने लिए जनतंत्र और समाजवाद लाने के रास्ते पर भागे बढ़ सके। मजदूर आन्दोलन को संगठित करने वाले नेताओं ने भी कभी मजदूरों के शिक्षण को प्राथमिकता नहीं दी। बल्कि सरसरी निगाह से देश के विभिन्न मजदूर आंदोलनों के क्षेत्रों के एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि नेतृत्व ने मजदूरों को शिक्षित करने की कोई योजना नहीं चलाई। आम मेहनतकश को ज्ञान की उपलब्धि के लिए कोई नियमित . प्रकाशन चलाने पर ध्यान नहीं दिया। जो हुआ भी वह नगष्य है । सचेत से सचेत और जुझारू न॑तृत्व ने भी लाखों मजदूरों का कई दशकों से आंदोलन में नेतृत्व करने के बावजूद उनके लिए नियमित रूप से एक पत्रिका भी नहीं चलाया । ऐसा लगता है कि मानो नेताओं के पास, सारी जानकारी रहने भर से समाज परिवर्त्तन कर लिया जा सकेगा। आम मेहनतकश को तो बस नारे लगाने हैं और नेताओं की पुकार-ललकार पर जंग में कूद पड़ना भर है। शायद नेता लोग ऐसा सोचते हैं कि पहले युद्ध या चुताव द्वारा समाज पर हमारा दखल हो जाये तब आम मेहनतकश को हम सब कुछ दे दंगे। परिवतंन की प्रक्रिया में आम मेहनतकश को वे बिलकुल ही बुद्धिहीन भूमिका मानते लगते हैं। क्या अगर ऐसी हालत में समाज बदले तो उस समाज में इस ज्ञान से वंचित मेहनतकश का सत्ता में कोई स्थान रह सकता है? क्या वह मुट्ठी भर लोगों के इशारों पर चलने वाले समुह् की एक इकाई बनकर नहीं रह जायेगा ? | मेहनतकशों को अपनी जिंदगी पर नियंत्रण रखने के लिए उनको ज्ञान चाहिए ओर इसके लिए शिक्षा चाहिए । मेहनतकशों को स्कूलों-कालेजों के माध्यम से वेसी शिक्षा नहीं मिली । अगर कुछ मिली भी तो बह हमेशा अपर्याप्त रहेगा । बदलते, ( ६ ) आगे बढ़ते समाज के बारे में लगातार जानकारी रखना है, जिसके लिए ऐसी शिक्षण प्रणाली का विकास करना है जो मोजूदा ज्ञान की शिक्षा के साथ-साथ वकक्‍षत के साथ घटती घटनाओं की जानकारी देती रहे । एक समग्र शिक्षा श्रणालों में कई चीजें शामिल होंगी-- किताबें गोष्ठियाँ , दृश्य-श्राव्य, फिल्म, भ्रमण, प्रयोग, साक्षरता अभियान; वयस्क कक्षायें, पुस्तकालय आदि। इनमें से हम यहाँ किताबों की भूमिका के बारे में लिख रहें हैं। इन सारे माध्यमों में किताबों की भुमिका सबसे बड़ी ओर दूरगामोी होतो है। मूलतः सारो जानकारियाँ किताबों में उपलब्ध हो।ो हैं। हाँ, जानकारियों को भली-भाँति ग्रहण करने के लिए अन्य माध्यमों की जरूरत है। लेकिन मेहनतकणशों को ज्ञान पहुंचाने लायक किताबें आज नहीं हैं । इन किताबों के लिए एक समांतर प्रकाशन प्रणाली की जरूरत है। “समग्र प्रकाशन” वंसा प्रणाली को शुरू करना चाहता है। कई मजदूर आंदोलन के नेता और कायकर्त्ता मजदूरों के शिक्षण की आवश्यकता को महसू तर करते हैं, लेकिन वे आंदोलन में इस तरह फंसे हैं कि शिक्षण प्रक्रिया को कोई प्राथमिकता नहीं दे पाते । जन शिक्षण काये वसा आसान भी नहीं है कि एक दृग्यम॒ नजर से उससे निपट लिया जाये । परंपरा से चली आयो हुई एक जटिल स्थिति है। इसे बदलने के लिए प्राथमिकता देते हुए, मौलिक चितन करके, एक कारगर योजना बनाकर उसे कार्यान्वित करने की जरूरत है । लेकिन आज की स्थिति में इस स्तर पर ऐसे प्रकाशन को एक असंभव कार्य मानकर छोड़ दिया जाता है। यथा स्थिति बनी रहे, क्रांति के बाद देखा जायेगा ! तब तक समाज में क्‍या मेहनतकश को भूमिका का आधार केवल नारे,




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