दादा आर्खिप और ल्योंका | DADA, ARKHIP AUR LYONKA
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
41
श्रेणी :
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मेक्सिम गोर्की - MAXIM GORKY
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)का निरीक्षण कर रहा था। उसके साथी ने अपना बूट उतार लिया था और अब आँखें
सिकोड॒कर उसे देख-जाँच रहा था।
“नहीं, कुछ नहीं है। क्यों? क्या कुबान का पानी सूख गया है?”
“पानी!...मेरा मतलब पानी से नहीं था।”
“तुम्हारा मतलब दारू से है? वो मैं साथ नहीं रखता।”
“ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम्हारे पास हो ही न?” उससे बातचीत करने वाले
ने नाव की फर्श पर निगाहें गड़ाये हुए ऊँची आवाज में आश्चर्य प्रकट किया॥।
“अच्छा, चलो, अब चलें! ”
कज्जाक ने अपने हाथ थूक से गीले किये और रस्सी थाम्ह ली। मुसाफिर
उसको मदद करने लगा।
“ए दादा, तुम भी जरा हाथ क्यों नहीं लगा देते?” दूसरा नाव वाला जो अभी
तक अपने जूते से उलझा हुआ था, आर्खिप की ओर मुखातिब हुआ।
“यह मेरे बूते के बाहर है, भाई!” बूढ़े ने एकरस, रें-रें करती आवाज में उत्तर
दिया।
“और उन्हें मदद की कोई जरूरत भी नहीं है। वे खुद ही कर लेंगे।”
जैसे कि आर्खिप को अपनी बात की सच्चाई से सहमत करने के लिए, वह
आदमी एक घुटने के बल उठा और फिर नाव की डेक पर लेट गया।
उसके साथी ने उसे अनमने ढंग से कोसा और, कोई जवाब न पाकर, जोर से पैर
पटकते हुए डेक पर जा चढा।
धारा के लगातार दबाव और बाजुओं से टकराती लहरों की दबी-घुटी आवाजों
के बीच, नाव हिलती-काँपती, धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी।
पानी की ओर देखते हुए ल्योंका ने महसूस किया कि उसका सिर मीठे-मीठे
ढंग से घूम रहा है और लहरों की तीव्रता से थककर उसकी आँखें निद्रालु होकर
मुन्दी चली जा रही हैं। ऐसा लग रहा था जैसे दादा के बड़बड़ाने की मद्धम आवाजे
कहीं दूर से आ रही हैं। रस्सी की चरमराहट और लहरों के छपाकों की आवाजें उसे
नींद के आगोश में धकेल रही थीं। एक निद्रालु शिथिलता से अवश वह डेक पर
दादा आर्खिप और ल्योंका
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