लोकतान्त्रिक विद्यालय | DEMOCRATIC SCHOOLS

DEMOCRATIC SCHOOLS by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaमाइकल एपल -MICHAEL APPLE

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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_ कनमान्त्् || लोकतांत्रिक विद्यालय ओर के शिक्षाकर्मियों को करना पड़ रहा है। इंग्लैण्ड और बवेल्स की तरह ही इस किताब से सम्बद्ध सभी अध्यापकों को नौकरशाही की सख्त नीतियों से जूझना पड़ा है। प्रबन्धनवाद -- जिसमें लगातार ज़्यादा कार्यकुशलता, लागत में कमी और हर बार पहले से बेहतर परीक्षा परिणाम की माँग है - विद्यालयों को अर्थव्यवस्था की “आवश्यकताओं” से जोड़ने की भी उतनी ही तगड़ी माँग से जुड़ा हुआ है। प्रतियोगिता की भावना, मानक, श्रेष्ठता, “मूलतत्व'ँ -- ये जगमगाते शब्द हैं। बाको सब फालतू की अय्याशी है जिसे हम वहन नहीं कर सकते। समूचे देश के विद्यालयों पर इस सबका असर पूर्वानुमानित ही रहा है। अध्यापकों में मानसिक दबाव में बढ़ोतरी हुई है, उनका काम तीक्ष्णतर हो गया है। प्रशासकों का काम यह हो गया है कि वे शिक्षण और पाठ्यक्रम की कम से कम फिक्र करें और विद्यालय की छवि की ज़्यादा से ज़्यादा। इससे एक निश्चित भावना का जन्म हुआ है (जो हमारे विचार में एक बिलकुल ठीक धारणा पर आधारित है)। वह यह कि शिक्षाकर्मियों और स्थानीय समुदायों ने स्वायत्तता और नियंत्रण अधिकार पाने की बजाय वास्तव में उन्हें खो दिया है। जब हम अमरीका के शिक्षाकर्मियों से बात करते हैं तो हमें लगता है कि वे इंग्लैण्ड के शिक्षाकर्मियों की चिन्ताओं को शब्दशः दोहरा रहे हैं। अटलांटिक के दोनों तरफ प्रशासक इस बात से परेशान हैं कि “उनके अधिकार क्षेत्र के लगातार कम होते जाने के माहौल में एक केन्द्रीकृत पाठ्यक्रम के तहत निरन्तर बेहतर प्रदर्शन के लिए उन्हें मजबूर किया जा रहा है।””“ तो दोनों परिप्रेक्ष्यों में अध्यापक और प्रधान (जिन्हें अमरीका में प्राचार्य कहा जाता है) काम के ज़्यादा बोझ और जवाबदेही की लगातार बढ़ती माँगों, बैठकों के कभी खत्म न होने वाले सिलसिलों और अनेक मामलों में भावनात्मक और भौतिक संसाधनों की बढ़ती हुई कमी को महसूस कर रहे हैं।* लोगों को दक्षताविहीन और हतोत्साहित करना लोकतांत्रिक और समालोचनात्मक शिक्षा का रास्ता नहीं है; उनका रास्ता इससे बिलकुल उलटा है। अन्य समानताएँ भी आश्चर्यजनक हैं। अटलांटिक के दोनों तरफ विद्यालयीन शिक्षा पर “बाज़ारीकरण” के दबाव का एक जैसा असर पड़ा लगता है। इस दाजे के बावजूद कि बाज़ारीकरण से नए विकल्प पैदा होंगे, बाज़ार पाठ्यक्रम, शिक्षाशास्त्र, संगठन, ग्राहक समूह और यहाँ तक कि विद्यालय की छवि तक में किसी प्रकार की विविधता को प्रोत्साहन देता नहीं मालूम होता। ऐसा लगता है जैसे वह लगातार विकल्पों को अवमूल्यित कर रहा त्र्थं बना था मामाक्ात ||.




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