अपना झारखंड , अंक 4 | APNA JHARKHAND - ISSUE 4 - HINDI -
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
20
श्रेणी :
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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सीताराम शास्त्री -SITARAM SHASTRY
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)है पैसा और श्रम लगा है। फिर अवैध दखल और गैर-मजरुूआ
जमीन के खेतें के लिए मुआवजा देने के लिए तैयार क्ये नहीं हैं?
. पूर्वी सिंहभूम में एन.एच.-33 का चौड़ीकरण
करने की अधिसूचना 2010 में जारी हुई। उस समय
. ग्रामीण क्षेत्र की भूमि के लिए मुआवजा का दर
8000-12000 रु० प्रति डिसमिल जबकि शहरी क्षेत्र में.
. ८६००० रु० प्रति डिसमिल तय की गयी है। शहरी और
ग्रामीण क्षेत्र में मुआवजा की दर निश्चित रूप से
आश्चर्यचकित करता है कि दोनों क्षेत्रों के बीच में इतना
ज्यादा अंतर क्यों है। एन.एच. किनारे भूमि व्यवसाय के
लिए उपयुक्त है चाहे ग्रामीण क्षेत्र ही क्यों न हो। बाजार
दर के आधार पर भी देखा जाए तो इसमें बहुत ही कम
अंतर है। सरकार ने मुआवजा की दर में अंतर को कम
करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। और न ही बाजार
दर के अनुसार मुआवजा देने के लिए पहल की गयी।
.... मानगो अधिसूचित क्षेत्र समिति वार्ड नं. 10 के
अंतर्गत ग्राम बालीगुमा आता है, यानी शहरी क्षेत्र में। इसी
गाँव से सटा हुआ देवघर पंचायत ग्रामीण क्षेत्र में आता
है। दोनों क्षेत्रों को देखने से कोई अंतर दिखता ही नहीं है।
ग्रामीण क्षेत्र में दिये जा रहे मुआवजे की वास्तविक बाजार
पी.आई.एल. भी दायर की गयी है।
दर फिर से निर्धारित करने की जरूरत है ताकि रैयतों के.
साथ न्याय हो सके। द
इन समस्याओं से अवगत कराने के बाद भी
सरकार एवं प्रशासन ने अब तक पहल नहीं की।
अंचलाधिकारी ने अवैध दखल और गैर-मजरुआ भूमि
एन.एच.ए.आई. को हस्तांतरण करने के लिए जिला
प्रशासन के माध्यम से स्वीकृति के लिए अनुशंसा मंत्रिमंडल .
को भेज दी है। इस संबंध में कभी ग्रामसभा से परामर्श
नहीं किया गया। ऐसे कई गंभीर सवाल और समस्याएं हैं
_जिन॑ पर सरकार अब तक मौन है। और दूसरी ओर अधि
ग्रहण की प्रक्रिया जारी है।
...._ झारखंड मुक्ति वाहिनी.2010 से ऐसी समस्याओं
को लेकर गंभीर है। कई बार प्रशासन और सरकार को
पत्र देकर ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया गया। अब
ऐसा लगता है कि सरकार बिलकुल गंभीर नहीं है। अगर
कुछ आश्वासन देती भी है तो उसे झूठा समझना चाहिए
. ऐसी परिस्थिति में विकल्प के रूप में जन आंदोलन ही हो
सकता है। ग्रामीणों की ओर से उच्च न्यायालय रांची में .
- मदन मोहन _
. झारखण्डी देशज समुदाय की विलुप्ति
ओर बुद्धिजीवी समूह की खामोशी का प्रश्न
ख्यातिप्राप्त विद्वानों, मानव वैज्ञानिकों, इतिहासकारों तथा आधुनिकतम शोध-निष्कर्षों से यह बात प्रमाणित होती
जा रही है कि यहां का देशन समुदाय न केवल झारखण्ड के जंगलाच्छादित पठारी क्षेत्र बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप का
भी प्रथम मानव समूह है। इन्हें ही कालान्तर में प्रोटो-ऑस्ट्रोलॉएड या दक्षिण देशीय मानव प्रजाति के नाम से चिन्हित किया
गया, जिसके अन्तर्गत झारखण्ड की रक्षणशील संथाल, मुण्डा, उराँव, हो, खड़िया, बिरहोर, असुर, भील आदि उपनृवंशीय
समूह शामिल समझी जाती हैं। अब प्रजातियों के निर्धारण में भाषायी तत्व॑ की अपेक्षा रक्त विश्लेषण प्रणाली, जीनोम
: विविधता परियोजनाओं आदि को अधिक महत्व दिया जाने लगा है और डॉ० बी० एस० गुहा के प्रजातीय अध्ययन के
निष्कर्षों के बाद नित्य हो रहे मानव वैज्ञानिक शोधों से भी यह प्रमाणित होने लगा है कि भले ही उराँव समूह द्रविड़ भाषा _
: परिवार से संबंधित हैं, मगर प्रजातीय तत्व की दृष्टि से वे प्रोटो-ऑस्ट्रोलॉएड मानव समूह के अंतर्गत आते हैं। संभवत
इसीलिये डॉ० बिमला चरण शर्मा, श्री जगदीश त्रिगुणायत, श्री जयदेव दास “अभिनव' जैसे विद्वानों ने इन्हें प्रोटो-ऑस्ट्रोलॉएड
या दक्षिण देशीय मानव समूह के अंतर्गत ही रखने का प्रस्ताव किया है। एक समय इसी मानव प्रजाति ने विभिन्न संस्कृति
कालों में. कई विकसित सभ्यताओं और संस्कृतियों के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। द
द्रष्टव्य है कि आदिमानव के प्रजातीय रूपान्तरण के पश्चात सभी मुख्य प्रजातियाँ जनसंख्या की दृष्टि से लगभग
समान थीं। कालान्तर में विभिन्न बाह्य एवं आंतरिक कारणवश अन्य मानव प्रजातियों की अपेक्षा इसी दक्षिण देशीय: मानव
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