दीवार का इस्तेमाल और अन्य लेख | DEEWAR KA ISTEMAL AUR ANYA LEKH

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कृष्ण कुमार - Krishn Kumar

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फिर... मुम्बई में इस साल की माध्यमिक विद्यालय प्रमाणपत्र परीक्षा में एक मिल मज़दूर का बेटा प्रथम आया। इस घटना पर हुए जनोल्‍लास से पता चलता है कि हमारे समाज में परीक्षा प्रणाली की कितनी अर्थपूर्ण भूमिका है। इससे यह भी पता चलता है कि परीक्षा प्रणाली को बदलना इतना मुकिश्ल क्यों है। परीक्षा प्रणाली के सामाजिक मूल्य इसकी गोपनीयता से पैदा होते हैं। हर कदम पर गोपनीयता के कर्मकाण्ड और नाटकीयताएँ हैं। नियत समय पर देश भर में परीक्षार्थियों के सामने सील किए हुए लिफाफे को खोलना किसी राष्ट्रीय धार्मिक संस्कार से कुछ कम नहीं है। यह संस्कार वहाँ भी सम्पन्न होता है जहाँ बाद में खुलकर चोरी करने को इजाज़त दे दी जाती है। पवित्र तीन घण्टों के खत्म होते ही जल्दबाज़ी में कापियाँ छीना जाना इसी नाटकीयता का एक हिस्सा है। उसके बाद एक या दो महीने का वह दौर शुरू होता है जब ऐसे व्यक्तियों द्वारा इन कापियों की जाँच होती है जिन्होंने परीक्षाथियों को कभी नहीं देखा है। अन्त में अखबारों के ज़रिए बड़े नाटकीय ढंग से हर परीक्षार्थी तक नतीजे पहुँच जाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया का एक ही सन्देश है कि परीक्षा प्रणाली पूरी तरह निष्पक्ष है और हर एक को मान्यता के आधार पर मौका देती है। भिन्न-भिन्न प्रकार की सामाजिक पृष्ठभूमियाँ और स्कूलों की गुणवत्ता के स्तर परीक्षा की मेज़ पर पहुँचकर खत्म हो जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि किसी की भी पहुँच किसी विशेष सुविधा तक नहीं है: उन तीन घण्टों के दौरान हर परीक्षाथी हर एक के साथ पक्षपात-रहित दिखने बाले ढंग से प्रतियोगिता कर रहा होता है। इस प्रकार इस परीक्षा पद्धति ने गणतंत्र के बुनियादी सिद्धान्तों को बचाए फिर... 25 रखा है। लेकिन वह सामाजिक ढाँचे और शिक्षा प्रणाली में गहरे पैठे विभाजन को छिपाती भी है। “पब्लिक” स्कूल में पढ़े धनी छात्र को “ब्राध्य' किया जाता है कि वह सरकारी स्कूल में पढ़े गरीब छात्र के साथ प्रतियोगिता करें। सभी उम्मीदवार समान हैं -- इस आवरण के नीचे शिक्षा प्रणाली की गन्दी वास्तविकताएँ (जैसे नर्सरी के लिए प्रवेश परीक्षा और निजी ट्यूशन) ढक जाती हैं। एक ऐसे समाज में जहाँ असमानता की जड़ें गहरी हैं और बहुसंख्य लोग अन्याय के हज़ारों रूपों से पीड़ित हैं, परीक्षा प्रणाली एक संगीन सांकेतिक काम करती है। वह एक ऐसे समाज में आशा का प्रतीक है जहाँ गरीबी या सामाजिक पिछड़नेपन के शिकार लोगों के लिए उम्मीद की कोई किरण नहीं। जाति प्रथा से ग्रस्त समाज में, जहाँ वैयक्तिकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है, यह परीक्षा पद्धति सफलता और विफलता दोनों को एक व्यक्तिगत रूप दे देती है। अगर तुमने अच्छे नम्बरों से पास किया है तो यह तुम्हारी प्रतिभा और कठोर मेहनत का नतीजा है, अगर तुम फेल रहे तो यह तुम्हारी कमज़ोरी का प्रमाण है। ये दोनों सन्देश, खासकर बाद बाला, सामाजिक श्रंखला को बनाए रखने में भारी योगदान करते हैं। वे उस गुस्से को जज़्ब कर लेते हैं जो फेल होने वाले लाखों युवाओं में सामाजिक संस्थानों - खासकर स्कूलों - के प्रति पैदा होना चाहिए। यही वजह है कि मुम्बई की माध्यमिक परीक्षा में मज़दूर वर्ग के एक बच्चे को चमकदार सफलता 60 प्रतिशत बच्चों की विफलता से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। फिर तो इस बात की जाँच करने की कोई ज़रूरत ही नहीं रह जाती कि फेल होने वालों में अधिकांश मज़दूर वर्ग के ही बच्चे हैं। मुम्बई में ऐसे 51 प्रतिशत म्युनिसिपल स्कूल हैं जहाँ के किसी भी बच्चे ने इस साल सफलता हासिल नहीं की है। इस शोकपूर्ण स्थिति के कारण जिस जनक्रोध की अपेक्षा की जा सकती है वह परीक्षा प्रणाली के जादू से एक गरीब विद्यार्थी की उपलब्धि के समारोह में बदल जाता है। जब तक शिक्षा और रोज़गार के अवसरों के ढाँचे में कोई मौलिक बदलाव नहीं आता, तब तक परीक्षा प्रणाली में मामूली सुधार भी आश्चर्यजनक ही होगा। अक्सर इस बदलाव के बारे में चर्चा होती है कि अंकों के स्थान पर ग्रेड दिए जाएँ। कुछ संस्थानों, जैसे दिल्‍ली विश्वविद्यालय, ने यह . अपनाया भी, लेकिन बाद में वे फिर अंक देने लगे। इसका कारण उत्साह और प्रबन्ध कौशल कौ कमी माना जाता है, परन्तु उसका वास्तविक




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