कलजया स्वामी विवेकानन्द भाग 2 | Kaljaye Swami Vivekanand Bhag 2

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Book Image : कलजया स्वामी विवेकानन्द भाग 2  - Kaljaye Swami Vivekanand Bhag 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भारतीय दर्शन की कठिन अवधारणाओं को सरल शब्दों में व्याख्यायित करते हुए कहा- मृत्यु और जीवन के फेर में पड़े हुए मनुष्योंकी यथार्थ सत्ता है--आत्मा। हमारा स्थूल शर्रीर तथा मन दोनों आत्मा से प्रथक हैं । आत्मा मन और सूक्ष्म शरीर के साथ जन्म व मृत्यु के चक्कर में घूम रहा है। जब समय आता है तो उसे सर्वज्ञत्व तथा पूर्णत्व प्राप्त होता है और उसके साथ ही हमारा जीवन-मरण चक्र भी समाप्त हो जाता है । जीवात्मा का इसीलिए लक्ष्य होता है-मुक्ति प्राप्त करना । हमारे धर्म में स्वर्ग व नरक भी हैं पर वे चिर स्थायी नहीं हैं । स्वर्ग में सुख अधिक हो सकता है भोग़ कुछ ज्यादा होगा किन्तु इससे आत्मा का अशुभ ही होगा । स्वर्ग अनेक हैं । इहलोक में जो व्यक्ति फल प्राप्ति की इच्छा से सदूकर्म करते हैं वे लोग मृत्यु के बाद ऐसे ही किसी स्वर्गलोक में देवताओं के रूप में जन्म लेते हैं। यह देवत्व एक पद विशेष होता है । दवता भी किसी समय मनुष्य थे । वे भी मुक्ति के लिए मनुष्य का तन धारण करते हैं। इसी कारण से मनुष्य का जन्म सब जन्मों में श्रेष्ठ कहलाता है। मेरी दृष्टि में स्वर्ग इस योग्य नहीं कि उसकी कामना की जाए। पृथ्वी की कर्म-भूमि है और मनुष्य ही श्रेष्ठ है जो मुक्ति प्राप्त कर सकता है। मुक्ति के लिए हमें वाह्य प्रकृति और अन्त प्रकृति दोनों पर विजय प्राप्त करनी होगी । इन्हें रौंद कर महिमा मंडित होना है और उस स्थिति पर पहुंचना है जहां न जीवन है और न मृत्यु । वहां न सुख है और न दुःख । वहां अनन्त आनन्द है जिसकी हम कामना करते हैं । हमारे धर्म का सार यही है। मैं आपको उस बात का ध्यान दिला दूं जिसकी हम कामना करते हैं । हमारे धर्म का सार यही है। मैं आपको उस बात का ध्यान दिला दूं। जिसकी इसे समय विशेष आवश्यकता है। धन्यवाद है महाभारत के प्रणेता महान्‌ व्यासजी को ज़िन्होंने कहा है-कलियुग में दान ही एक मात्र धर्म है। तप और कठिन योगों की साधना इस युग में नहीं होती । इस युग में दान देने तथा दूसरों की सहायता करने की विशेष आवश्यकता है । दान शब्द का क्या अर्थ है ? सब दानों में श्रेष्ठ है--अध्यात्म दान फिर है विद्यादान उसके बाद है प्राण दान भोजन-कपड़े का दान सबसे निकृष्ट दान है । आध्यात्मिकता ज्ञान-दान के विस्तार से मनुष्य जाति की सबसे अधिक भलाई की जा सकती है। लेकिन सबसे पहले/एक बात आवश्यक है। हम सदियों की घोर ईर्ष्या से जर्जर हो रहे हैं। हम सदा एक दूसरे के प्रात ईर्ष्या भाव रखते हैं....अमुक व्यक्ति क्यों हमसे आगे बढ़ गया है ? क्यों हम अमुक से बड़े न हो सके ? सर्वदा हमारी यही चिन्ता बनी रहती है। धर्म में भी हम इसी ताक में रहते हैं। यदि इस समय भारत में कोई महाणाप है तो वह यही ईर्ष्या की दासता है। हर एक व्यक्ति हुकूमत 15




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