काव्या लोक | Kavyaa Lok

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Kavyaa Lok by पं रामदहिन मिश्र - Pt. Ramdahin Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( रै५ ) है और कोई सात्विक तथा आज्ञिक अजुभावों का भावक होता है तब यह केसे कहा जाय कि. काव्य की. मार्मिक समालोचना की उपेक्षा की गयी है ? जब हम इस सरस उक्ति को उपस्थित करते हैं कि दाब्द और अर्थ का जो अनिवंचनीय शोभाशाली सम्मेलन होता है वहीं साहित्य है । दब्दाथ का यह सम्मेलन वा विचित्र विन्यास तभी संभव दो सकता है जब कि कवि अपनी प्रतिभा से जहाँ जो दाब्द उपयुक्त हो वह्दी रख कर अपनी रचना को रुचिकर बनाता है. तब न तो हमको कला में अकुशक दौढी से अनभिज्ञ और अभिव्यज्ञना से विमुख ही कहा जा सकता है और न हम केवल उपदेशक ही माने जा सकते हैं। अब यद्द सहद्य विवेचकों पर ही निभेंर है कि हमारे प्राचीन आचार्य सहि- तस्य भावः साहित्यमू को ष्यनू प्रत्यय करके बनाना ही जानते थे या साहित्य-कछा के ममंज्ञ भी थे । हमारी उपेक्षा ही इन बातों को विस्सृति के गर्भ में डाल रही है । रही सत्ससाहित्य की सष्टि की बात । हित--शभ दिक्षा उपदेदय से युक्त साहित्य यदि वह निरतिशय भानन्द प्रदान करने में भी समर्थ हो तो इसे किसी ने असत्साहित्य नहीं कहा है बल्कि उसे सत्साहित्य होने का गोरव स्वतः प्राप्त है । भाचार्यों के मताजुसार हित साधना साहित्य का एक विशिष्ट प्रयोजन . भी है । अब तक़ वादों के बातूल से विप्छुत होकर जिन्होंने काव्यरचना की है उन्हें वह सौभाग्य प्राप्त नहों हुआ है जो सहित साहित्य को श्राप्त है । इस प्रकार के साकेत के संतुख्न में सत्साहित्य होने का सोभाग्य एक आधघ को ही अद्या- वधि उपलब्ध हुआ है । स-हित के सम्बन्ध में विद्वास है कि इन महान्‌ व्यक्तियों के उद्धरणों से पेय और सन्तोष हो जाना चाहिये । ..... तुलसी दास जी ने जहाँ स्वान्तःसुखाय कहकर काव्य का आत्मानन्द ही उद्देद्य निर्दिष्ट किया है वद्ाँ-- _ ह-कौरति भणिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहूँ दंत होई ॥ १ वागूभावकों भवेत्‌कथ्चित कथ्चिद्धद्यभावकः । सात्विकेराज्िके कथ्चिदनुभावेश्व भावकः ॥। राजदोखर विशेष देखना हो तो काव्यमीमांसा के चोथे अध्याय का अन्तिम भाग देखिये । २ सादित्यमनयो शोभाशालितां प्रति काप्यसो । अन्यूनानतिरिक्तत्वमनोद्वारिण्यवस्थितिः ॥ कुन्तक




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