आवारा गर्द | Aawara Gard

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Aawara Gard by आचार्य श्री चतुरसेन शास्त्री - Acharya Shri Chatursen Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आवारागद्‌ श्श्‌ उस हँसी की आभा से जैसे दिप गई। मैं बोला नहीं बोल सका नहींउसी भाँति लड़खड़ाता हुआ ऊषा से अलोकित एकांत सड़क पर लुट़कता चला--जेसे स्वप्न से व्वल रहा हों । ओह कैसी अभूतपूर्व खुखद रात रहीं बह । [३] दो मास ऐसे बीत गए जैसे खेल हो गया हो । हाँ मेंने एक पेसा भी नहीं दिया । उस नारी के हृदय का मैंने संपूर्ण अध्ययन कर डाला | उसके प्रियतम के सपूण॑ खत पढ़ डाले । वह भीं डॉक्टर था सेरे-जेसा अवारागद नहीं प्रतिष्ठित सिविल्ल सजन | उसके बीवी थी वच्चे थे उसने इस प्रेम लतिका को पत्नी की हीं भॉति घर में रक्‍्खा था | वह उसकी पत्नी के साथ खाती सोती रहती और पत्नी ही समभी जाती थी । उसने मुमसे एक- एक दिन की वातें कहीं । अपने छः वर्ष के स्वप्न-सुख के मधुर संरमरण कहती हुई वहद हँसी रोई और नाची उन्साद में आवे- शित होकर । में दिन-भर अपने सेठ के यहां रहता--कहना चाहिए सोता और सध्या होते ही भरूमता हुआ वहाँ आता जहाँ सुखद सेज गम खाना उन्माद्क मद्य सदुल नारी एक साथ ही उपस्थित थी- सब भमटों और खटपरटों से रहित । एक यत्र की भॉति में उस सुख-सागर में डूब जाता । खाता-पीता सिगरेट पीता और कहने न कहने योग्य क्या-क्या करता न करता । दिन बीतते गये और एक बोकः मेरे हृदय पर लदता गया । मेने उसे कभी कुछ नहीं दिया । अभागिनी असहाय नारी मुझे कहाँ से खिलाती-पिलाती है. ? कुछ देना तो होगा ही । परंतु कहाँ से ? में जानता था मेरा साथीं सेठ कहाँ रुपए-पे से रखता है । से सेठानी के जेबरों के रखने की जगह भी जानता था। सब सेरा विश्वास करते थे । मेरी रात की शैरहाज़री भी




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