बा और बापू | Baa Aur Bapu

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Baa Aur Bapu by आचार्य चतुरसेन - Acharya Chatursen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घर मे सत्याग्रह एक बार 'वा” को रक्तस्राव का रोग हो गया। बहुत दबा- दारू की, आपरेशन भी कराया, परन्तु लाभ नहीं हुआ। इसपर बापू मे 'बा' से कहा, “तुम दाल और नमक खाना छोड दो ।* बापू ने इसके लाभो का बहुत-सा वर्णन किया, बहुत मनाया, अपने कथन के समर्थेन में इधर-उधर की बहुत बातें पढ़कर सुनाई, पर 'वा' ने तही माना । अन्त में उहोने कहा, “दाल और नमक को छुमसे भी कोई कहे, तो तुम भी नही छोड सकते |” बापू ने कहा, “मुझ्के रोग हो और कोई बैद्य-हुकीम कह, तो मैं तुरन्त छोड दू। पर/तु लो, तुम छोडो या न छोडो, मैंने एक वर्ष के लिए ममक और दाल-सेवन अभी, इसी समय से त्याग दिया ।” 'बा' बहुत पछताईं। कहने लगी, “मेरी मत मारी गई तुम्हारा स्वभाव जानते हुए भी हुउ ठान बैठी । अब तो मैं दाल मर नमक नही खाऊगी, परन्तु तुम अपनी बात लौठा लो। नही तो यह मेरे लिए बडी भारी संज्ञा हो जाएगी ।” बापू ने कहा, “तुम नमक और दाल छोड दोगी तो बहुत ही अच्छा होगा, उससे तुम्हे अवश्य लाभ होगा। परन्तु मैं ली हुई प्तित्ा को नही लौटा सकता। आदमी किसो भी बहाने में सयम पालने, उसे लाम ही होता है ।” ः धवा' ने आखो में आसू भरकर कहा, “तुम बडे हडोले हो, कसी की बात मानते ही नहीं। ”




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