आलमगीर | Aalamageer

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Aalamageer by आचार्य चतुरसेन शास्त्री - Acharya Chatursen Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ढस्ते तादव छ जारी आझाशाप्रों शो यड़ों के हकिसों, सिपएशालाएो भौर शाइबादा | डसी मांदि पहुँचा रहे पे । इसके छारों हरक शिगरपी रह का काशी के काम का क्षकड़ी ढा धंयसा पा वो थरे दरबार को चारों प्रोर पे धरे हुए पा । डिश लगा पर गइ धक्व बिहा था, डठमें बीत बढ़ाऊ स्वून पे, दिन पर ठस धामलात दी छंद पी । पट छूठ ठस तमाम छगइ पर टैजी हुए पी दिसमें इपएशी ज॑गक्ा शगा था। इतकफे झाषे मांग में जरदपता का एक धौमती शामिपाना लगा या थो सोने के स्वूनों पर लड़ा जा। लकड़ी के अगले के बाइर एक विस्तृत मैदान या, बरहों तसे रुबाये नौ पोड़े ८क तर प्रोर नो ही दृतरी तरफ़ खड़े पे। इनके आद हो चार बड़े-वढ़े इापी रूड़े थे थो (6२ से दैर तड़ मुनहरी सूलों से रजे थे, पे हापी बाइशाए ठश्ामत ५) तखाम करे ध्मे रस्म झदा करने के सिए शाए राए से । शमफ्े बाद बहुत से पहरेदार हिगाहदी शफ़ शोबढ़र शड़े ये! शबके धम्त में एक घढ़ा मारी दाज्नान पा अर्पो ८० प्रप्र के बाज बाले मुस्तेर शड़े पे! बादशाह के भादे ही ये बाणे बधाए बानेबाले पे । कुद्ध भ्रप्टर शुइ स्बद्षापा डी निगरानी मुस्तैरी से कर रहे पे। दरबार में झ्लारइर्यनक रुस्नाटा और स्पषसणा थी। प्रषग्प के लिए थो जडीब फिर रऐ थे, उनके द्वामर में मुनसे झासे ये, वे शपहती बंगले फे मीतर भी झ्ान्दा शबपे पे) ये क्ाग अत्पस्त सावधानी सै देश रऐे पे हि कोई ऐसा काम, डिटुसे इाशशाए अप्रकन हें, न इने पाए. ! हफ्त के दिलकुछ निकट मुनएरी करएरे से ररकर, हर के परीखे भर एक द्योय-सा ठस्तत था लो शाही हस्त दे समान हो इस शमब चूता था। बह हफ्त बादशाए के बड़े पृत्र शाइबादा दारा के लिए धान के बली शरद हॉने श्री घापद्ा बाएशाद कुछ दिन प्रषम अर चुढ्े थे, झोर दिठ्ते झ्रेले का हो देदज बाइशाए के एगस्शर में रैरने का सम्मान घास या ।




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