आर्यजीवन प्रथम भाग | Aarya Jeevan Bhag 1

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Aarya Jeevan Bhag 1 by पं राजाराम प्रोफ़ेसर - Pt. Rajaram Profesar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आर्य-नीवन का सुंप्लिप्त वर्णन । ९ उठती है, कि कया यह .झमिय की पत्नी होने योग्य तो है; कईी मेरे मन ने असन्मार्ग में तो पाओं नहीं रख दिया है । तब इस. आदबोका को मिटाता हुआ दुष्यन्त कहता है-- असंदा्य क्षतपरिश्रदसषमा यदारय मस्यामभिलापि में मना ।' सता दि संदेहपदेपु वस्तुपु ममाणमन्त! करण मदत्तय ॥ निश्सेदद यद एक क्षत्रिय की पत्नी होने योग्य हैं, जब कि “मेरा आय मन इस में अनुरक्त हुआ है । क्योंकि संदेद वाली: . बातों के विषय में भले घुरुपों (आयों) के मसे की महत्तियें प्रमाण होती हैं (आर मन स्वभावत। उसी में महत्त होगा, नो उस के लिए धर्म है, यह हो नहीं सकता, कि आये मन स्वभावत! कभी पाप में प्रदत्त हो चर्तमान आये-सो जाये वंशों में उत्पन्न हुए ब्रतैमान - आयों को अब अपने इस सचे आयेत्व को पहचानना चाहिये। ' उदाइरण-नारद ने वाल्मीकि के लिए आर्य राप की वर्णन इस मकार किया है-- . ः हवाकुवषप्रभवों रामो नाम जने। श्रुत। । नियतात्मा मददावीयों छुतिमान घृतिमीव बच्ची ॥८॥ बुद्धिमाद नीतिमाद वाग्मी श्रीमाज्छजु निवईण। चिपुलांसो महावाहु+ कम्बुग्रीवों महाइलु+ ॥९॥ - भहोरस्को महेष्वांसो गूदज़्ररिन्द्म। । आजाजुवाहु। सुशिरा। छुरुलाटा सुविक्रक' ॥१०॥ सम समविभक्तांग! रिनधवर्ण प्रतापवाद । पीनवक्षा। वि्यालाक्षो ठक््मीवा ज्छुभलक्षण। ॥९९॥ धर्म सत्यसन्घश्च मजानां च हिते रत! । यदरदी ज्ञानसम्पन छुचिवक्य समाधिमाव ॥१२॥




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