ये, वे, बहुतेरे | Ye, Ve, Bahutere

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अचल उस दिन हॉस्टल में शाम को भी दूध पहुँचाना था । एकाएक बापू को ज़ोरों का बुख़ार श्रा गया। मैं ही घर में श्रकेली काम करने वाली रह गई । सब लोग बड़ी मुश्किल में पड़ गये। बीस सेर दूध पहुँचाना था । बड़ा ज़रूरी काम था । शाम का ख़ास श्रार्डर था | मगर बापू को इतने ज़ोर का बुख़ार था श्र जाड़ा लग रहा था कि उनका जाना नामुमकिन था । मैंने हिम्मत करके कहा--““कोई फ़िकर नहीं है । में दूध पहुँचा दूँगी”' बापू ने कॉपते हुए कहा--“ध्वम्पा तू श्रकेली केसे जायगी ? शाम का वक्त है । लौटते-लौटते तो श्र रात हो जायगी | घीसू कों साथ ले ले न) मैंनिपिहा--को टू मात न ्ीं ट् ं तुम फ़िकर न करो, मुझ डर नहीं लगता | माँ-बाप कों श्राश्वासन देकर मैं चली | रास्ते में तरह-तरह के ख्याल मन मं श्राने लगे । मु तीन मील का रास्ता तय करना था शरीर लौटते-लौटते तो और भी रात हो जायगी | एकाएक तुम्हारी मूर्ति फिर आँखों के सम्मुख घूमने लगी | में जैसे अपने से चिपटी जा रहीं थी । साँक के समय योंही न जाने मन मं कहाँ-कहाँ की पीड़ा घनी हॉती जाती है । फिर मैं तो उस समय अपने को श्रौर भी निःस- हाय देख रही थी | घर में कोई बहिन भाई नहीं । पिता अर घ-वूठ़ा श्र बीमार ! माँ चिड़चिड़ी श्रौर श्राँखों के सामने श्राजीवन श्रपना भाग्य देखते रहने पर भी उसे न चौन्‍्हने वाली । संसार में कहीं किसी त्रोर मेरा कोई नहीं । तुम अवश्य मेरे हो; मगर कितनी दूर । श्राकाश के न काश-कुब्ज नक्तत्र के समान ऊँचे श्र श्रलम्य-श्सम्भव । मेरी जैसी न.




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