कल्याण माता शारिका देवी भाग 2 | Kalyan Mata Sharika Devi Volume-2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रुद्र-सूष्टि ( लेखक--डा० श्रीवासुदेवशरणजी अग्रवाल; एमू० ए०; डी० लिटू० ) पुराणोंमें ब्र्मासे अर रुद्रॉंकी उत्पत्ति कही गयी है । रुद्रसर्गकी कल्पना प्राचीन वैदिंक थी | ब्रह्माने अपने समान पुत्र उत्पन करना चाहा तो उनकी गोदमें एक नीढलोहित कुमार प्रकट हुआ । उत्पन्न होते ही वह॒ गति करने लगा और रोया | ब्रह्माने पूछा--'तुम क्यों रोते हो ?” उसने कहा--'मेरा नाम रक्‍खो |? ब्रह्माने उत्तर दिया--'तुम्हारा नाम रुद्र होगा ।” तब उसने सात बार रुदन किया और उसके सात नाम हुए--भव, दावे, ईशान, पझुपति, भीम, उम्र, महादेव । उसके इन सात रूपोंके छिये ये सात स्थान या शरीर हुए--पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, सूर्य-चन्द्रमा ( सुम्मिलितरूप ) एवं दीक्षित ब्राह्मण या यजमान ( माकंण्डेयपुराण ५२ । १-९) । वस्तुत: यह बिंगय वैदिक था । उसकी यहाँ तीन कोटियोँ हैं-एक रुद्रतत्व या रुद्रका खरूप; दूसरे उसके सात नाम और तीसरे उसके सात किंत्रा आठ स्थान या शरीर । इन तीनोंको इस प्रकार स्पष्टतासे समझना चाहिये । प्राणतत्वका नाम रुद्रतत््र है । शातपथ-त्राह्मणमें कहा है--'सटिके आरम्भमें असत्‌ ही था । वह असत्‌ क्या था £ उस असत्‌ तखकी संज्ञा ऋषि थी । वे ऋषि कौन थे १ प्रागोंकी संज्ञा ऋषि थी । उन्हें ऋषि क्यों कहा गया £ उन्होंने गति की या गति ही उनका खरूप था; इसलिये वे ऋषि कहदलाये |” ऋषिं गतौ धातु तुदादिगगमें पठित है, 'ऋषति, ऋषतः; ऋषपन्तिः उसके रूप चछते हैं । इकारान्त “ऋषि” दाव्दकी व्युत्पत्ति १८ असद्वा इदमग्र आसीत्‌ । तदाहुः किं तदु असद आसीदिति ऋषपयो वाव ते अग्रे असदासीतु तदू आइहुः के त 5ऋषव इति प्राणा वाइ्ऋषयस्ते यत्‌ पुरास्मात्‌ सर्वस्मादिद- मिच्छन्तः श्रमेण तपसारिपंस्तस्मादू ऋषयः ॥ ( झतपथ दू | २1१1१) उसीसे हुई है । अतएव प्राणोंकों ऋषि कहते हैं । इसका तातर्य यह हुआ कि सृष्टिक आरम्भभें एक खयंभू मूल तत्त था । उसे ही ऋग्तिच, गतितत््र या प्राणतत्तर कहा गया | प्रत्येक प्राणीके भीतर जो कोई मुख्य प्राण अग्निके समान दहक रहा है और बाहरके. भूतोंको खींचकर अपनी शक्ति या तेजसे अपने खरूपमें परवर्तित कर रहा है, वह मुख्य प्राण ही इन्द्र था रुद्र कहडढ़ाता है । वह सबके भीतर बैठा हुआ धक-घकू कर रहा है | जबतक वह जलता है तभीतक जीवन है | इन्धनात्मक होनेके कारण ही उसे इन्घ” कहते हैं | इन्धकी ही संज्ञा इन्द्र है । यह कहनेकी प्रतीकात्मक दैठी थी । शारीरमें जो दस इन्द्रियाँ हैं, वे उस सुख्य प्राण या इन्द्रकी दक्तिसे ही सम्बन्धित या संचाठित होनेके कारण इन्द्रियाँ कही जाती हैं । मूलभूत प्राण या अग्नि रुद्र भी कहता है | वही नीललोहित-कुमार है | ज्ञानका वर्ण नील और कर्म- का लोहित है । उस अग्निकी अभिव्यक्ति रश्मियोंके नील और छोहित ये ही दो छोर हैं । सूर्यरशिमियोंकी वर्णपड़िका ( स्पेक्ट्रम ) में भी नील रर्मियाँ और लोहित रश्मियाँ दोनों सिरॉपर हैं । अथवंवेदमें रुद्रके नील- लोहित धनुषका उल्लेख आता है | यह रुद्र कया है और क्यों यह संज्ञा है ? इस प्रश्नका उत्तर यों समझना चाहिये | मूलभूत अनि या दाक्ति जब जागरणकी अवस्थामें आती है, तब उसकी संज्ञा रुद्र होती है । दाक्ति या अग्निके जागरणका तात्पर्य है उसका सोमके छिये आकुछ होना । अग्नि गतितत्व है; प्रत्येक गतिका सापेक्षरुप आगति है । वहीं गतिरूप अग्नि आगति रूपमें सोम है । अग्नि जब अपने केन्द्रमें जागता है, दि कि सन शा २- यो वे रुद्र। सोध्चि। ॥ (दातपथ ५ । र 1४१३) ः




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