माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला | Manikchandra Di. Jain Granthmala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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॥ म्रस्‍तावना ॥| इस संस्करणमें मुद्रित मूलग्रन्थ लघीयत्रय और उसकी व्याख्या न्यायकुमुदचन्द्र॒का परिचय इसी ग्रन्थके प्रथममागकी प्रस्तावनामें दिया जा चुका है। यहाँ ग्रन्थकारोंके विषय में ही कुछ लिखना इष्ट है। ग्रस्तुतग्रन्थक्रे कतो आचाये प्रभाचन्द्र हैं। यह न्यायकुमुदचन्द्र अकलड्डदेवके खविद्वतियुक्त लघीयत्रय प्रकरणकी विस्तृत व्याल्या है। अतः मूलकार 'अ्रक- लझ्डदेव और व्याख्याकार प्रभाचन्द्रके विषयमें लिखना ही यहाँ प्रस्तुत है। न्याय्कुमुद्चन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावनामें सुहृद्वर पं» कैलाशचन्द्रजी शासत्रीनें इन दोनों आचार्योके समय आदिके विषयमें यथेष्ट ऊहापोह किया है | मैं अकलड्डंदेवके समयविषयक अपने विचार “अकलइडू- ग्रन्थत्रय_ की प्रस्तावनामें विस्तार के साथ लिख चुका हूँ । जिस- “विक्रमाकेशकाज्दीयशतसप्रप्रमाजुषि । कालेजकलक्ड्यतिनो बोौद्धेवोदो महान भूत कारिकाक्रे विक्रमार्कशक' शब्द पर विद्वानों का मतमेद है कि “अकलझ्डूदेव का शाब्राथ विक्रमसंचत्‌ ७०० में हुआ है, या शक संबत्‌ ७०० में ” उसके विषयमें इतना और विशेष वक्तव्य है कि-विक्रमा्कशक' शब्दका प्रयोग अनेक प्राचीन आचार्योने 'शकसंबत के अधर्मे किया है। उदाहरणाथ धवलाटीकाकी अ्रन्तिम प्रशस्तिकी यह गाथा ही पयीप्त है- “अठतीसम्हि सतसए विक्कमरायकिए सु-सगणामे । वासे सुतेरसीए भमाणुविलग्गे धवलूपक्खे ॥7 घट्खेडागम प्रथमभागकी प्ररंतावना (धू० २५-४५) मे प्रो० हीरालालजीने बहुमुख ऊहापोहके अनन्तर यह सिद्ध किया है कि उक्त गाथा में वर्णित 'विकरमरायंकिए सुसगणामे पदसे 'शकसंवत्‌' ही ग्राह्य हो सकता है। इसी प्रस्तावना (पू० 9०) में ग्रो० सा० ने अपने मतके समथनकेलिए त्रिकोकसारके (गा० ८५०) टीकाकार श्रीमाधवचन्द्रजैविध्का यह अवतरण दिया है-“श्रीवीरनाथनिवेते! सकाशात्‌ पंचोत्तरपदशतवर्षाणि (६०५ ) पंचमासयुतानि गत्वा पश्चात्‌ 'विक्रमाइशकराजो' जायते' *? इससे अल्न्त स्पष्ट हो जाता है कि शकराजको भी “विक्रमांकश्का लिखने की प्राचीन परम्परा रही है और इसीलिए 'शकसंवत्‌ का उल्लेख भी “विक्रमाक्शकसंवत्‌” पदसे किया जाता था| मैंने “अकलइडू- ग्रन्थत्रय” की प्रस्तावनामें अन्य प्रमाणोंके आधारसे विक्रमाकंशकाब्दका शक संवत्‌ ७०० श्रथ करके अकलझूदेवका समय ई० ७२० से ७८० सिद्ध किया है | अस्तु




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