पत्तों की बिरादरी | Patto Ki Biradrai

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Patto Ki Biradrai by मणि मधुकर - Mani Madhukar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नींद में कई रपटनों और खन्‍्दको से गुजरते हुए अचानक शुवों एक अनन्त दलदल में फेस गया । उसमे से न निकल पाने की असहायता में बह एक- दम पसीया-पसीता हो गया । फिर हकवकाकर जागा और कई क्षणों तक शुल्य में टेंगा हुआ, सपने से बाहर आने के लिए पलक झेंपकाता रहा । धीरे-धीरे चेतना संयत होने लगी। सामने पीपछ का दरख्त नजर आया। सूछे पत्तो का एक रेला उसकी तरफ बढ़ता हुआ आया और खोखल के निकट टिक गया, नन्‍ही-सी मेंड बनाकर | मन्द-मन्द काँपता हुआ । --हवा आयेगी और ये पत्ते फिर आगे उड जायेंगे । * शुवों ने क्रब॒ट बदली । एक न समझ में आनेवाली उदासी उसमे काई को भाँति पसरी हुई थी “***एक भरा-पूरा दरख्त होता है और उसमें पत्ते रहते हैं । पत्ते बया होते हैं, दरख्त के लिए ? दरख्त एके ढाणी है, एक गाँव है ओर पत्ते उसके वाशिन्दे होते हैं।साथ बोलते हुएं, एक-सा जीवन जीते हुए“'वे एक ही विरादरी के अनेक लोग ! लेकिन ऋतुओं की भार से जब पेड उजड़ने लगता है तो पत्ते भूप-मूघकर गिरते और विखरने लगते हैं । अपने गाँव-घर को छोड़- कर, दुःख-दैन्य के बोझ को ढोते हुए, वे पत्ते” “जाने कहाँ-कहाँ तक रेलों' में बहते-उड़ते चले जाते हैं ।**“यही है पत्तों की अपनी विरादरी ! जब हरे थे, तव साथ। और, अब सूख गये हैं**“अपने गाछ, अपनी जड़ों, अपनी शाखाप्रों से बिछुड गये हैं तो भी साथ | यह वेया चीज है जो




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