पत्तों की बिरादरी | Patto Ki Biradrai
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
174
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नींद में कई रपटनों और खन््दको से गुजरते हुए अचानक शुवों एक अनन्त
दलदल में फेस गया । उसमे से न निकल पाने की असहायता में बह एक-
दम पसीया-पसीता हो गया । फिर हकवकाकर जागा और कई क्षणों तक
शुल्य में टेंगा हुआ, सपने से बाहर आने के लिए पलक झेंपकाता रहा ।
धीरे-धीरे चेतना संयत होने लगी।
सामने पीपछ का दरख्त नजर आया। सूछे पत्तो का एक रेला उसकी
तरफ बढ़ता हुआ आया और खोखल के निकट टिक गया, नन्ही-सी मेंड
बनाकर | मन्द-मन्द काँपता हुआ ।
--हवा आयेगी और ये पत्ते फिर आगे उड जायेंगे ।
* शुवों ने क्रब॒ट बदली । एक न समझ में आनेवाली उदासी उसमे
काई को भाँति पसरी हुई थी “***एक भरा-पूरा दरख्त होता है और
उसमें पत्ते रहते हैं । पत्ते बया होते हैं, दरख्त के लिए ? दरख्त एके
ढाणी है, एक गाँव है ओर पत्ते उसके वाशिन्दे होते हैं।साथ
बोलते हुएं, एक-सा जीवन जीते हुए“'वे एक ही विरादरी के अनेक
लोग ! लेकिन ऋतुओं की भार से जब पेड उजड़ने लगता है तो पत्ते
भूप-मूघकर गिरते और विखरने लगते हैं । अपने गाँव-घर को छोड़-
कर, दुःख-दैन्य के बोझ को ढोते हुए, वे पत्ते” “जाने कहाँ-कहाँ तक रेलों'
में बहते-उड़ते चले जाते हैं ।**“यही है पत्तों की अपनी विरादरी ! जब
हरे थे, तव साथ। और, अब सूख गये हैं**“अपने गाछ, अपनी जड़ों,
अपनी शाखाप्रों से बिछुड गये हैं तो भी साथ | यह वेया चीज है जो
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