श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय षट्के | Shree108 Swamihansswarupkrit Shreemadbhagawadgeeta Ashtmoadhyay

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय षट्के - Shree108 Swamihansswarupkrit Shreemadbhagawadgeeta Ashtmoadhyay

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about स्वामी हंसस्वरुप - Swami Hansaswaroop

Add Infomation AboutSwami Hansaswaroop

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
र्तो० ॥ ३॥ शमड्गवद़ीदा १८४७ कक की मुख्य तालय्थ यह है, कि बह्मलोकसे लेकर पताल पर्य्यनत जो कुछ आत्माका चमत्कार देखाजाता है अर्थात्‌ तेतीसकोटि देव तथा चोरासी लक्ष योनियोंमें आत्माके प्रवेश करनेसे नाना प्रकारके भिन्न स्वभाव देखपडते हैं उनहीं प्रत्येक खथावको अ्रध्यात्म कहते हैं [ अर्थात्‌ प्रत्येक चेतन्य जो देहोंको आश्रय करके भोक्तारूप होकर विज्लनग-विल्ग चेष्टा करने लगजाता हे उसे ही अध्यात्म कहते हें। तहां ऐसा कदापि नहीं समभना चांहिये, .कि प्रत्येक देहमें जो भरांख, कान, नाक ईट्यादि इन्द्रियोंका समूह है वही अध्यात्म हे | क्योंकि ये तो सबमें समान ही हैं पर मिन्न २ जीवों जो अपने शरीरके अनुमार मिन्‍म-भिन्‍न चेष्टा करना है वही खमाव हे भरे वेही एक ठोर सिमय्कर थध्यात्म कहेंजाते हें | जैसे शाखाम्रग ( वानर ) ओरे मस्गपति ( व्याप्त ) की ओर देखिये | यद्यपि इनकी इन्द्रियांसब एक समान हैं पर उनका अपना-अपना खभाव भिन्‍न है । वानरका उछलकर एक डालसे दूसरे डालपर जाना और अपने बच्चेको एक हाथसे पेठमं लगाये उठलजाना, कन्द, मूल, फल तथा चांवल, मूंग, मटर इत्यादि अनाजोंका खाना, मनुष्योंकी ओर घुड़- टिप्पणी-- अध्यात्म रचब्दका अर्थ है-/ भात्मानं देहमधिछत्य तत्मिनथिपाने तिष्ठतीति अध्यात्मम्‌ ” भात्मा श्र्थाव्‌ जीवसहित देहकी अपने झधिकारमें करके तिप्त श्रधिष्ठानमें स्थिर रहे उसे कहिये भ्रध्यात्म । श्रुतिः- “तत्‌ सृष्दा तदेवालुप्राविशत्‌ तदलुप्रविश्य सच लबा- भसवृत्‌ ” । २३४




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now