अष्टावक्र - गीता | Ashtavakr - Geeta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला प्रकरंग | २१ _मी।बीजनमनननीीनानननननाम कलम; अलेने+-आ+-आछ ४... .टअलमभृ+- मिलना समर //कोअआंन+भा45भ७ ७ का नर बनज लक न कि अथांतू में ब्राह्मण हैं, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं वैश्य हूँ, में शद्र हेँ, जेसा- जैसा जिसको अभिमान होता है, वैसे-वैसे वह कर्मों को करके, उनके फलों का भोग करता हैं और एक जन्म से दूसरे जन्म को ग्राप्त होता है, और वही बन्धायमाम कटा जाता है । और जिसको ऐसा अनुभव है-- नाहं ब्राक्षणः, न ज्ञत्रियः | अथौत्‌ न मैं ब्राह्मण हूँ, न क्षत्रिय हूँ, न वेश्य हूँ, न शुद्र हूँ, किन्तु--- शुद्धों इहम, निरक्ञनो5हम्‌, निराकारो5हम्‌, निर्विकल्पो5हस्‌ । अर्थात्‌ में शद्ध हूँ, माया-मल से रहित हैं, आकार से भी रहित हैं, विकल्प से भी रहित हूँ और नित्य-मुक्त हूँ । बंध और मोक्ष ये सब मन के घम हैं । मुझे ये सब तीनों काल में नहीं हैं, किन्तु मैं सबका साक्षी हूँ, ऐसे अभिमानवाला पुरुष नित्य- मुक्त हैं | इसी वार्ता को अन्यत्र भी कहा है-- देहाभिमानाथयत्पापं नतहोवधकोटिमिः प्रायथ्चित्तावेच्छुद्िठ णां गोवधकारिणाम्‌ ॥ अर्थात्‌ जो देह के अभिमान से पुरुषों को पाप होता है, वह पाप करोड़ों गौओं के वध करने से भी नहीं होता है, क्योंकि करोड़ों गौशों के वध करनेवाले की शुद्धि के लिए शाज्र में प्रायश्वित्त लिखा हैं, अर्थात्‌ ग्रायश्चत्त करके करोड़ों गौओं का वध करनेवाला भी शुद्ध हो सकता हे, परंतु देहाभिमानी की शद्धि के लिए शास्त्र में कोई भी प्रायश्चित्त नहीं लिखा हे, इसी वास्ते जाति, वश आदि जो देह के धम हैं, उन धर्मों को-जो आत्मा में मानते हैं, वे ही देहाभिमानी कहे जाते हैं, और वे ही सदा बन्धायमान रहते हैं। ओर जो जाति और वर्णों के धर्मों को आत्मा में नहीं मानते हैं, कितु अपने आत्मा को असंग, नित्य-मुक्त और शुद्ध मानते हैं, वे नित्य ही मुक्त हैं, क्योंकि हे राजन ! शात्रों में दो दृष्टि कही गई हैँं--एक तो शाख्र-इृष्टि, दूसरी लौकिक दृष्टि | शास्र-दृष्टि से तो देहादि के चम के अभिमानी का नाम ही चमार है, क्योंकि अपने को चर्म का अमिमानी मानता हे---




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