ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य भाग 1 ओर 2 | Brahmasutra shankar bhasaya Bhag 1 or 2

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Book Image : ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य भाग 1 ओर 2  - Brahmasutra shankar bhasaya Bhag 1 or 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथमाध्याये प्रमाणभाष्य म्‌ ज्‌ दर्शनो के अधिकारी होते, तथापि ऐहलोकिक प्रेय से उपरत होते भी पारलौकिक ग्रेय से उपरत सब नही होते है, और सर्वत्र उपयोगी विचार मे सहायक अनुमान मे विशेष उपयोगी, प्रमाण, प्रमेष सशयादि षोडश पदार्थों का वर्णान जो न्‍्यायदर्शन मे और द्रव्य, गुण, कर्म सामान्‍्यादि का वर्णन जो वेशेषिक मे है, उन्ही का सक्षेप रूप मे वर्शान है, सो भी प्रथमावस्था मे उपयोगी है। समास-व्यास ( सक्षिप्त-विस्तृत ) के विचार से बुद्धि विशद और बृहत्‌ होती है, फिर एक ही पुरुष एक है नारी, ताकर करहु विचारा' इत्यादि उपदेश और “प्रकृति पुरुष चेव विद्धयनादी उभावषि' (भ गी १३॥१९ ) 'भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्य.” (छा ६।२३॥१ ) इत्यादि शास्त्रो के अनुसार जगतु की प्रकृति ( उपादान कारण ) अनिवंचनीय एक माया और जीवात्मां तथा सत्य ब्रह्मात्मा रूप एक पुरुष ही विचारादि से समझने के थोग्य है कि जिस ब्रह्मात्मा के अपरोक्ष अनुभव से ( ब्रह्मसस्थोश्मृतत्वमेति छा २।२३1१। ) ब्रह्मनिष्ठ अम्नतत्व ( मोक्ष ) पाता है। भाव है कि ( अन्नेन शुद्भेनापो घूलमन्विच्छाडि' सोम्य शुद्भेल तेजो मूलमन्त्रिच्छ तेजसा सोम्य शुद्धेन सब्पुलमन्विच्छ सम्पुला. सोम्य सर्वा प्रजा: सदायतना सत्प्रतिष्ठा: । छा ६।८।४ ) देह का कारण रूप भी अन्न सत्य अन्तिम मूल कारण नही है, इंससे अन्न रूप शुग ( कार्य ) से उस का मूल ( कारण ) रूप जल को समझो, जल रूप कार्य से उसके कारण रूप तेज को समझो, तेज से सर्वाधिष्ठान सत्य ब्रह्मात्मा रूप माया-शक्ति सहित मूल कारण को समझो, क्णोकि सन्मूलक, सदाश्चित, सत में समाप्ति विलय वाली' सब प्रजा हैं, अर्थात्‌ जेंसे मिट्टी के आश्रित मिट्टी से अभिन्न सत्ता वाला घट है, तत्तु रूप ही पट है, मिट्टी और तन्तु के बिता घट और पट मिथ्या वाचारम्भण (वाचया5$5रम्यतेड- स्युद्यत इति वाचारम्मणम) मात्र ही है। श्रुति कहती है कि (व/चारम्भणं विकारो नामधेय॑ मृतिकेत्येव सत्यभ”ः छा. ६1१।४ ) । मिट्टी के, विकार मिट्टी रूप से सत्य है श्रौर अपने स्वरूप से असत्य मिथ्या है, इससे मिट्टी के ज्ञान से ही उनका ज्ञान होता है, उनका सत्य स्वरूप सिट्टी के समझ लेने से ही समझा जाता है, अन्यथा नहीं। वेसे ही भूत- भौतिक सब ससार और मनोमायामय जीवेश्वर का व्यावहारिक स्वरूप मिथ्या है। ब्रह्मात्मा रूप एक पारमाथिक स्वरूप ही सत्य है, उसके ज्ञान से सब का स्वरूप ज्ञात अनुभूत होता है, जिससे कि अनादि अविद्या की निवृत्ति से जीवस्मृक्तिपूर्वक विदेह मुक्ति होती है | परन्तु यह तत्व प्रथम श्रेणी वालो को समझ मे नही आ सकता है। इससे कार्यकारित्व मात्र को सत्य का लक्षण मानकर मृत्पिएड से चघ॒ढ में जलाहरणादि रूप पृथक्‌ कार्यकारित्व होने से मृत्पिएड से पृथक्‌ सत्ता वाला घट को नेयायिकादि मानते है। क्योकि प्रथमावस्था मे यह बात समझ मे नहीं आसकती कि यदि सिट्टी से घट भी भिन्न और सत्य वस्तु है, तो एक सेर मिट्टी का जहाँ एक घट बना हो, वहाँ मिट्टी कही गई नहीं है, और घट भी एक नया पार्थिव द्रव्य रूप पदार्थ उसमे उत्पन्न हुआ है, तो, उस का परिणाम गुरुत्व कुछ भी तो बढना चाहिये और




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