ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्यम | Brahmasutra Sankarabhasyam

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Brahmasutra Sankarabhasyam by वीरमणि प्रसाद उपाध्याय - Veeramani Prasad upadhyayहनुमानदास जी - Hanumandaas Ji

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वीरमणि प्रसाद उपाध्याय - Veeramani Prasad upadhyay

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हनुमानदास जी - Hanumandaas Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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॥ श्री: ॥ ब्रह्मय॒त्रशाड्ुरभाष्यम्‌ अद्यतत्त्वविमज्िनी'-हिन्दीव्याख्योपेतम्‌ चअ्ल्ड्स्ेग्टा+2>-- प्रथमोष्ध्याय: यो वेदे: प्रविधिच्यते हि विरजा जावन्ति ये साधव:, येनेद रचित घृतं॑ं च निखिल यस्मे जग़द्रोचते । यस्मादेव विभाति विश्वविभवों यस्येव लीलाइखिलम, यस्मिन्नित्यसुख॑ सदा समरस तस्से नमः स्वात्मने ॥ उपोद्घात श्रेयश्व प्रेयश्न मनुष्यमेतत्तो सम्परीत्य विविनक्ति घीरः 1 'श्रेयों हि घीरो5भिप्रेयतों वृणीतते प्रेयो मन्‍्दी योगक्षेमादवृणीते ॥ ( क5० १1३1३ ) सद्युरु सत्यधास्त्र के उपदेशों के अनुसार घामिक मर्यादा नियम में रहने बारे मनुष्य को मोक्ष और उसके साववरूप प्रुण्य, ज्ञान, सन्तोपादि रूप सब श्रेय तथा प्रेय (प्रियतर) स्वर्ग सुखादि और उनके सावन स्त्रीपुत्रविषयादि प्राप्त होते हैं 1 मनुष्यता से रहित को तो श्रेंय या प्रेय कुछ भी प्राप्त नहीं होते । उन दोनों के प्राप्त होने पर भी जो मनुष्य प्रेय की उपेक्षा ( जनादर-त्याग ) करके श्रेय का ग्रहण करता है, उसको साथु ( शुभ ) प्राप्त होता है, और जो विवेकादि के विना श्रेय की उपेक्षा करके प्रेय का ग्रहण करता है, वह श्रेय से वियुक्त ( रहित ) होता है ( तयो: श्रेय: आददानस्य साधु भवति हीयतेए्थाद्य उ प्रेयो वृणीते) । इससे घीर (बुद्धिमान) विवेकी मनुष्य उन श्राप्त श्रेय और प्रेय को सम्यक्‌ विचार कर विविक्त ( पृथक्‌ ) करता है, और प्रेय से विविक्त ( भिन्न ) तथा श्रेष्ठ श्रेय का ग्रहण करता है, और मन्द ( अल्पन्न-अविवेकी ) पुत्र शरीरादि के योग-क्षेम (प्राप्ति वृद्धि रक्षादि) के लिये प्रेय का ही ग्रहण करता है; जिससे कि वह सत्य पुरुषार्थ रूप प्रयोजन से रहित (च्यूत) होता है और फिर प्रेय से भी रहित होकर कष्ठमय पशु जादि योनि में प्राप्त होता है । वहाँ श्रेय, प्रेय आदि के विवेकादि से रहित सांसारिक सुखेच्छुक मनुष्यों के लिए प्रायः कर्मकाण्ड रूप बेद और उपवेदादि प्रवृत्त हुए हैं, जिनमें शंत्रु-मारणादि स्वर्गादि के लिये अधिकतर कर्मो का विधान है | अविद्यादि कलैशयुक्त मनुष्य भी बहुत प्रकार के इच्छायुकत होते हैं, इससे कमंकाण्ड रूप वेद और उपवेदादि का भी बहुत विस्तार है, उपासना काण्ड,, ज्ञान-काण्ड




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