चन्द्रलोक संस्कृत - टीका | Chandra Lok Sanskrit - Tika

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Chandra Lok Sanskrit - Tika by सुबोध चन्द्र - Subodh Chandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ४ ) है चेतनमय चन्द्रकान्त मणियो, रसों की वृद्धि करो। श्ररी स्वेष्छाचारी, विचार-पूवंक न रची गई कविता, मुझसे तेरा जन्म न हो ('या मेरे सामने मत भरा )। यह निपुण साक्षात्‌ पोयूषवर्ष ( जयदेव ) विचार-लहरों के श्रागार भ्रल- जुपर-सागर मे ज्वार लाने के लिये चन्द्रालोक की सृष्टि कर रहा है |२॥ | कवि-समय है कि चाँदनी के निकलने पर चन्द्रकान्त मणियाँ जल बहाती हैं, स्वेच्छाबारिणी श्रभिसारिकाओो का मार्ग प्रकाश के कारण श्रवरुद्ध हो जाता है और समुद्र मे ज्वार भा जाता है। उसी प्रकार इस अलझ्भार-ग्रन्य चन्द्रालोक के प्रकाशित होने पर चेततमय चित्त नव रसों की वृद्धि करे, स्वेच्छा- चारो और विचार-रहित कविता सामने से न निकले तथा विचारों के झ्राकर अलझ्ार-शास्त्र की बृद्धि हो ॥२॥ | युकत्यास्वाद्यलसद्रसैकबस ति: साहित्यसारस्वत- क्षीराम्भोधिरगाधतामुपदधृरसेन्य: समाश्रीयत्ताम । श्रीरस्मादुपदेशकोशलमयं . पीयूपमस्माज्जग- ज्ञाग्रद्भासुरपद्यकेश रयशःशीतांशुगस्मादू बुघा: ॥ ३॥ युक्‍त्येति । युकत्या प्रमाण; । आस्वाद्यः श्रास्वादनयोग्यः । लसनन्‍तः शोभमाना; ये रसा; तेषपाम एका केबला बसति: आश्रयस्थानम । अगाधता गम्मीरताम्‌। उपदधत धारयन । साहित्यात्मक॑ सारस्वतें शासम्‌ | तदेव ध्षीराम्भोधिः ज्ञीरसागर३ | सेव्य; संबनीयः । तत्फकलमाह । ( है ) बुधा; विद्वांसः देवा; था। श्रस्मात्‌ श्री; लक्धमीः। श्रस्मात उपदेशकोशल्मय शिक्षा-नैपुण्यात्मकम्‌ । पीयूष सुधा । श्रस्माव्य जाग्रतू विकसितं भासुरं देदीप्यमानं पद्मकेशरचत्‌ कमलकिहजल्कबत यशः्कीतिंः एवं शीत्तांशः चन्द्रर। समाश्रीयताम्‌ प्राप्यताम्‌ | रूपकालझ्ारः ॥ ३।| है बिद्वानो ( देवताओं ), प्रमाणों के कारण प्रास्वादनन्योग्य, शोभित हो रहे रसों का एकमात्र स्थान, गम्भीरता घारण करने वाला, साहित्य-शास्त्र-रूपी क्षीर-सागर झपनाने-योग्य है । इससे ( प्राप्त होने वाली ) लक्ष्म (घन या




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