भारतीय सामाजिक समस्याएं | Bharatiy Samajik Samasyaen
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
418
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सामाजिक समस्याओं की अवधारणा 17
चाहिए कि समाज में सामाजिक विघटन व्याप्त है! महत्वपूर्ण प्रश्नों पर लोगी में ऐकमत्य के
अभाव के फलस्वरूप तनाव व संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है। यह स्थिति सामाजिक विघटन
की परिचायक है।
(2) सामाजिक नियन्त्रण के साधनों का प्रभाव कम होना 6,655 छ्टिएएशा65४ 0
परा8 प्राध्या३ ण 50०2 (0071०)--समाज मे व्यवस्था बनाये रखने की दृष्टि से सामाजिक
नियन्त्रण के साधनों का होना आवश्यक है। ये साधन व्यक्ति एवं समूह के व्यवहार को इस
प्रकार नियन्त्रित करते है कि दूसरे के कार्यो मे किसी प्रकार की कोई बाधा न पडे। जब
सामाजिक नियन्त्रण के विभिन्न साधनों जैसे जनरीतियों, प्रथाओं, रूढियीं, धर्म एवं विश्वास
आदि का छोगो के व्यवहारों को नियन्त्रित करने की दृष्टि से प्रभाव शिथिल पड जाता है तो
व्यक्ति और समूह मनमाने ढंग से अपने रक्ष्यों की पूर्ति में ग जाते है। इससे दूसरों के
हक्ष्य-प्राप्ति के मार्ग में बाधा पड़ती है और संघर्ष होने छगता है। ऐसी स्थिति में सामाजिक
सन्तुलन विगड़ जाता है। परिणामस्वरूप सामाजिक विघटन पनपता है। अत. सामाजिक
नियन्त्रण के साधनों के प्रभाव में कमी आना सामाजिक विघटन का सूचक है।
(3) ब्यक्तिवाद पर जोर (खगाफ़राक४5 ०1 1101श009191)--सामूहिकता की भावना
ही व्यक्ति को समाज की दृष्टि से सोचने-विचारने और कार्य करने की प्रेरणा देती है। यही
भावना व्यक्तियों को समूह में एकता के सूत्र में वांधे रखती है और उन्हें समूह के व्यवहार-
प्रतिमानों के अनुसार आचरण करने को बाध्य करती है। लेकिन जब व्यक्ति समूह के स्थान
पर “मैं' को एवं सामान्य रक्ष्यों के स्थान पर व्यक्तिगत स्वार्थों को महत्व देने लगता है तो
इसका तात्पर्य यह है कि उसके द्वारा समूह की उपेक्षा की जा रही है। जब समाज के अधिकांश
व्यक्ति इस प्रकार अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति में ठग जाते हैं और समूह अथवा समाज की
चिन्ता नहीं करते तो, समझ लेना चाहिए कि सामाजिक विघटन आरम्भ हो चुका है। जहां
व्यक्तिवाद पर जितना ज्यादा जोर दिया जाता है, वहां सामाजिक विधटन की उतनी ही
अधिक सम्भावना रहती है।
(4) सामूहिक आदर्शों का महत्व कम होना (1,05५७४ ]राएणांशाए८ ण॑ 0णा6०९९
1000$)--स्लामाजिक संगठन उसी समय तक दृढ़ बना रह सकता है जब तक समूह के
सदस्य समूह के लिए त्याग करने एवं अपने स्वार्थों की वलि देने को तैयार हों। जब व्यक्ति
सामूहिक आदर्शों की चिन्ता नहीं करते, जब वे व्यक्तिगत स्वार्यों को ही सव कुछ समझ ठेते'
हैं, तो सामान्य हितों की पूर्ति में बाधा पड़ती है। इसके फलस्वरूप सामाजिक विघटन की
स्थिति पनपती है।
5) रुद्वियों एवं संस्थाओं का संपर्ष (0०णा० ण हश०८४ शात गराशांाणा)--
सामाजिक संरचना के अन्तर्गत अनेक संस्थाएं एवं उनसे सम्बन्धित रूढ़ियां पायी जाती हैं।
इन दोनों के बीच सहयोगपूर्ण सम्बन्ध ही सामाजिक संगठन का मुख्य आधार है। विवाह,
परिवार, जाति, स्कूल, धर्म-संघ आदि महत्वपूर्ण संस्थाएं हैं। जब सामाजिक संस्थाएं सामाजिक
परिवर्तन के फलश्वरूप चदल जाती हैं परन्तु उससे सम्बन्धित रूढ़ियां ज्यो-की-त्यों बनी रहती
हैं तो इन दोनों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यह स्थिति ही सामाजिक विधटन के
हिए अनुकूल परिस्थितियां पैदा करती है।
(6) कार्यों का एक समिति से दूसरी को हत्तान्तरण (राशा्द ण एजालांणा5 पिता
006 57०ए १७ /७०८0--मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक समूह
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