शान्ति - कुटीर | Shanti - Kutir

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Shanti - Kutir by पं. रूपनारायण पाण्डेय - Pt. Roopnarayan Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र्१्‌ पाँचवाँ परिच्छेद । बैठ बैठा चुपचाप सोच विचार किया करता था; यहाँ तक कि भोला- जाथसे भी अधिक बातचीत करनेको जी नहीं चाहता था | मोछानाथ जेरे मनकी अवस्था जानता था, इसलिए वह मेरे मन शान्ति छानेके लिए-मुझे प्रसल वनानेंके लिए-तरह तरहकी बातें करता था। इसमें सन्देह नहीं कि भोठानाथके साथ रहनेसे मुझे बहुत कुछ सहारा मिलता था, मगर हृदयके भीतर अशान्ति-बेचैनी-की आग सुल्गा ही करती थी। भोरानाथने एम० ए० की परीक्षा पास करके उसी कालेजमें प्रोके- सरीकी नौकरी कर लो | मैं आईन पढ़ने छगा। मैंने यह नहीं सोचा कि क्यों कानून पढ़ता हूँ, कानून पढ़कर क्‍या करूँगा ! कानूत पढ़ना होता है, इसी कारणसे में कानून पढ़ने छगा | मैं रोज छोँ-कांछेजमे जाता था; मंगर वहाँ किस चीजकी पढ़ाई होती है, इसकी मुझे कुछ खबर न थी। प्रोफ़ेसर साहब जब आकर पढ़ाना शुरू करते थे तब हजार चेष्ठा करनेपर भी मैं पुस्तकमें मन नहीं छगा सकता था। उस समय मेरा मन उस कालेजकों छोड़कर न जानें कहाँ भागा भागा फिरता था; मैं भी उसका पीछा करता करता दमभरमें अनेक देशोंकी सैर कर आता था । प्रोफ़ेसर साहब क्‍या बतला रहे हैं, पढ़नेवाले क्या , ७ रहे हैं, किसी ओर मेरा ध्यान नहीं था। प्रोफ़ेसर साहब कभी कभी * पा5? से अछ्ग किसी भद्भुत प्रसंगको छेड़कर हँसते हँसाते थे और सब छड़के उसमें उनका साथ देते थे | उनकी हँसीसे कभी कभी मेरी नींदसी खुछ जाती थी, में चौंक पड़ता था और उनकी इस हँसीका कोई कारण न समझ सकनेके कारण मानों झेपकर सिर झुकाये बैठा रहता था | इस आफतसे अपनेको बचानेके लिए भें जकसर सबके पीछे भेज करता था। मेर सहपाठियोमिंसे कभी किसीने मुझे उस स्थानसे उठकर जागे विठ्झानेकी चेथ नहीं की | इसमें सम्देह नहीं




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