श्री जिनागम | Sri Jinagam

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : श्री जिनागम - Sri Jinagam

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about ब्रह्मचारी मूलशंकर देसाई - Brahmchari Moolshankar Desai

Add Infomation AboutBrahmchari Moolshankar Desai

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
( २ ) : बर्णी जी को प्रइन पूछने में मेंने कमी संकोच नही किया ।। जैसे पुत्र पिता से पूछने में संकोच नही करता ।' ऐसी मेरी भावना श्रो वर्णी जी के प्रति थी। मै उनको अपना महान उपकारी मानता था श्र अभी भी मानता हूँ। है मै वर्णी जी को हफ्ते मे एक पत्र नियमिंतशरूप सेललिखता था और कोई प्रश्न जरूर पूछता था। श्रो वर्णी जी सागर मे थे और में सोनगढ था-। वर्णी जी के सघ के त्यागी ने वर्गी जो की ऐसी धारणा बना,दी कि. मूलशंकर तो कानजी स्वामी का अनुयायी है। आपका नही है।” यह बात श्री वर्णी जी ने मान, ली हो इतना नही परन्तु वह बात प्रगट आगई। मैने पत्र मे प्रश्न पूछा जिसका उत्तर श्री वर्णी जी- ने नही दिया परन्तु लिखा कि “आपकी हमारे पर श्रद्धा नही है तो आप हम से प्रइन क्यो पूछते है ? हमने उस पत्र का उत्तर लिखा कि महाराज | आपके ऊपर मेरी श्रद्धा नही, वह आप दूसरे लोगो के कहने से, लिखते हो या अनुमान से लिखते हो या अनुभव हुआ है कृपया खुलासा करें। वर्णी जी का जवाब आया, आप अपनी श्रात्मा से पुछो हमसे क्यो पूछते हो ? ड़ इस प्रकार के पत्र-व्यवहार के एक मास पहले मेरी आत्मा मे ऐसी भावना जाग्रत हुई कि श्री वर्णी जी का मेरे ऊपर महान उपकार है। उनका कुछ न कुछ बदला देना चाहिए। इस भावना से प्रेरित होकर हमने एक पतन्न स्थाद्वाद महाविद्यालय बनारस के मन्‍्त्री को लिखा कि मेरी भावना श्री वर्णी ; जी के नाम से जैन धर्म॑ के पढने वाले विद्याथियो को प्रति वर्ष पारितोषक देने का विचार है। आप यह शर्त स्वीकार करे तो मैं एक हजार रुपया प्रदान करूँगा और उनका जो ब्याज आवे वह जैन धर्म के पढने; वाले विद्यार्थी को श्री वर्णी जी के नाम से पारितोषक मे वितरण किया जाय। श्री मन्त्री ने यह शर्त स्वीकार कर ली और वही पत्र मैने श्री वर्णी जी के पत्र के जवाब मे सागर भेज दिया और लिखा कि आपके प्रति , मेरी श्रद्धा है या नही इसका स्पष्टीकरण यह पत्र ही कर देगा विशेष मे कुछ कहना नही चाहता। श्री वर्णी जी का तुरन्त जवाब आया कि “मुलशंकर जी, आपकी मेरे प्रति श्रद्धा है आप प्रइन पुछते रहे। वर्णी जी भ्रभी कषाय से मुक्त नही हुए है ।” देखिये वर्णी जी की सरलता इस पत्र ने मेरी भक्ति में विशेष प्रोत्वाहन दिया-श्री वर्णी जी भोली भ्रात्मा है परन्तु कान के कच्चे है वही श्रद्धा अभी तक मेरी बनी हुई है।'' श्री वर्णी जी का विहार सोनागिर से ग्वालियर हुआ--मै भी वर्णी जी की श्राज्ञा मंगवाकर ग्वालियर सन्‌ १६४८ मे गया । चातुर्मास म्ुरार मे हुआ। वहा श्री वर्णी जी ने भ्रपनी लिखी हुई जीवनी 'मेरी जीवन गाथा” प्रकाशित करने कों श्री फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री को दी-1 वह पुस्तक प्रकाशित कराने मे एक प्रति का तीन रुपया खर्च होगा ऐसा अनुमान किया गया। बाद में श्री फूलचन्दजी साहब ने कहा कि महाराज | तीन रुपये मे यह पुस्तक प्रकाशित नही होगी परन्तु अ्रन्दाज चार रुपये लग जावेगे। वर्णी जी ने कहा भेया तुम जानो । मैने वर्णी जी महाराज से कहा यदि यह पुस्तक प्रकाशित करने के लिए सुभको दी जावे तो मैं विना मुल्य से एक हजार प्रति प्रकाशित करवा दूगा? वर्णी जी ने कहा भैया ! पडित फूलचन्द जी को मैने दी है वह' जाने । मै लाचार बन गया। बाद मे वही पुस्तक प्रकाशित होगईः। उस पुस्तक में ग्वालियर चातुर्मास तक का वर्णन है। । ्््ि के ग्वालियर से श्री वर्णी जी कां सग विहार कर सहारनपुर जाने को रवाना हुआ | मै भी, साथ में . थां। पैदल बिहार होता था| बहुत दफे वर्णीजी संघ के त्यागी की झोर्‌ दृष्टि कर कहते थे कि “हमारे साथ , आप क्यों घूमते है ?” यह छाब्द सुकको तीर के समान लगे | मैने एक दिन कहा महाराज सृंघ से ही आपकी , शोभा है। बिना पखर के मयूर अच्छा नही लगेगा आपसे हमारी शोमा है और हमसे आपकी, शोभा है। ; वर्णीजी कुछ बोले नही । थोड़े दिन बाद वही का वही शब्द कहा--“हमारे साथ श्राप क्यों घुमते हो” )




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now