श्रावक प्रज्ञप्ति | Shravak Pragyapti

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पं बालचन्द्रजी शास्री - Pt Balchandraji Shastri

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हरिभद्र सूरी - Haribhadra Suri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रावकप्रज्ञप्ति २४ १०, देशावकाशिक १-५४ ३१८ अतिचार )) ३२० ११, पौषधोपवातत १-५५ ३२१-३२२ अतिवार |) ३२३-२३२४ १२, अतिथिसंविभाग १-५६ ३२५-३२६ अतिचार छ् ३२७ १३, संलेखना । १-५७ ३७८-३८४ अतिचार | ३८५ श्रावकप्रज्षप्तिकी विशेषता-- यह प्रायः सुनिदिचत है कि किसी संक्षिप्त प्राचीन प्रन्थके पदचात्‌ उसके आधारसे जो अन्य ग्रन्थ रचा जाता है देशकालकी परिस्थिति एवं प्रस्थकारकी मनोवृत्तिके अनुसार उससे उसमें कुछ विशेषता रहा ही करती है। प्रकृतमें उवासगदसाओ यह एक अंगश्नतके अन्तर्गत ग्रन्थ है, भले ही उसे पुस्तकारूढ़ पीछे किया गया हो; फिर भी उसके विषयविवेचनकी पद्धतिमें प्राचीनता देखी जाती हैं । वह प्रस्तुत श्रा. प्र. को रचनाका आधार हो सकता है । उससे श्रा. प्र. में जो कुछ विशेषताएँ दिखती हैं वे इस प्रकार हैं-- १. प्राणातिपातविरतिरूप प्रथम अणुव्रतके प्रसंगमें प्रकृत श्रा. प्र. में अनेक शंका-समाधानोंके साथ हिसा-अहिंसाविषयक महत्त्वपूर्ण विचार भी किया गया हैं ( १०७-२६५९ )। २. चतुर्थ अणुब्रतके प्रसंगमें जहाँ उवासगदसाओमें स्वदारसन्तोषका ही विधान किया गया है वहाँ श्रा, प्र. में पापस्वरूप होनेसे परदारगमनका भी परित्याग कराया गया हैं ( २७०-२७१ )। यहाँ इस ब्रतके दो रूप हो गये दिखते हैं--एक परदारपरित्याग और दूसरा स्वदारसन्तोष । टीकाकारके अभिप्रायानुसार परदारपरित्यागी वेश्याका परित्याग नहीं करता तथा स्वदारसन्तोषी वेश्यागमन नहीं करता । ३. उवा. द. में इच्छापरिमाणब्रतके अतिचारोंका निदेश इस प्रकार किया गया हँ--न्षेत्र-वास्तु- प्रमाणातिक्रम, हिरण्य-सुवर्णप्रमाणातिक्रम, द्विपद-चतुष्पदप्रमाणातिक्रम, घन-घान्यप्रमाणातिक्रम ओर कुृष्य- प्रमाणातिक्रम । पर श्रा, प्र. में वास्तु, सुवर्ण, चतुष्पद और धान्य इनका निर्देश न करके उनके स्थानमें आदि! दाब्दका उपयोग किया गया है। यथा--क्षेत्रादिप्रमाणातिक्रम, हिरण्यादिप्रमाणातिक्रम, धनादिप्रमाणातिक्रम और द्विपदादिप्रमाणातिक्रम । इससे ग्रन्थकारकों सम्भवतः वास्तु, सुवर्ण, धान्‍्य और चठुष्पदके अतिरिक्त तत्सम अन्य वस्तुएँ भी अभीष्ट रही हैं । ४. उवासगदसाओमें जहाँ दिग्त्रत आदि सात उत्तरक्नतोंका उल्लेख केवल शिक्षापद' के नामसे किया गया है ( सूत्र १२ व ५८ ) वहां श्रा. प्र. में दिखत, उपभोग-परिभोगपरिमाण और श्नर्थदण्डविरमण इन तीनका उल्लेख गुणब्रतके नामसे तथा शेष सामायिक आदि चारका उल्लेख शिक्षापदके नामसे किया गया है ( देखिए गा. ६, २८०, २८४, २८९, २९२, ३१८, ३२१, ३२६ और ३२८ )। ५, उ. द, में सामायिक शिक्षापदका स्वरूप संक्षेपर्में प्रकट किया गया है, परल्तु प्रकृत श्रा. प्र. में उसका विवेवन बहुत कुछ विस्तारसे किया गया है। यहाँ सर्वप्रथम सावद्ययोगके परिवर्जन और असावद्य- योगके आसेवनको सामायिकका स्वरूप प्रकट करते हुए यह आशंका व्यक्त की गयी है कि सामायिकमें अधिष्ठित गृहस्थ जब परिमित समयके लिए समस्त सावद्य योगकों पूर्णतया छोड़ देता है तब वस्तुतः उसे साध ही मानना चाहिए। इस आशंकाके उत्तरमें उसे साथु न मानते हुए यहाँ शिक्षा, गाथा, उपपात, स्थिति, गति कषाय, बन्घक, वेदक, प्रतिपत्ति और अतिक्रम इन द्वारोंके आश्रयसे गृहस्थकी साधुसे भिन्‍नता प्रकट की गयी




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