पातज्जलयोगसूत्रम् | Patanjalyogsutram

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका र५ सयमात्‌' और 'परार्थान्यस्वार्थसयमात्‌” पाठ्ठय की सभावना है। अर्थ की दृष्टि से 'प्रत्यमाविशेषो भोग” अधिक सगत है, वयोकि प्रत्ययाविशेष से भोग उत्पन्न नही होता, बल्कि प्रत्ययाविज्येप ही भोग है। ( द्र० इष्टामिष्टगृणस्वरूपावधारणं ओऔग --व्यासभाष्य रोे१९ ) । रार्थान्य पाठ व्याख्याक्षारों के व्याख्यान- शब्दों को देखकर कम्पित किया गया है, वस्तुत 'परार्थात्‌ पाठ ही सौत्र हूँ । (१९) ३॥४० मूत्र में भोजदृत्ति के अनुसार 'प्रज्वलनभू! पाठ है--ऐसा दृतिव्याब्या से कयचित्‌ ज्ञात होता है, यद्यपि अन्यान्य व्यास्याकार 'ज्वलतम्‌ पाठ के पक्षपाती है। सून॑ में 'ज्वलन' पाठ के रहने पर भी व्याख्यान में 'प्रज्व- लग शब्द का व्यवहार किया ही जा सकता है ( यदि वह प्रतीक न हो ), अत “ज्वक्ूनम! प्राठ भी भोज-समत हो सकता है । (२०) ३॥५१ मूत्र में मोज के अनुसार 'स्वाम्युपनिग्न्त्रणे' पाठ सिद्ध होता हैं, जब कि भाष्यादि-ध्यास्पानो में 'स्थान्यूपनिमस्त्रण/ पाठ हैं। हमारी दृष्टि में मृत्र का प्राचीन पाठ 'स्वात्यूपतिसस्त्रणे' है। टोकाकारों ने स्थान! झठद उचित व्याख्या भी की है। स्थान शब्द के योगसूत्रमम्भत अर्थ में पुराणादि में प्रयोग मी मिलता हैँ। भोजवृत्तिगत स्वामिन” पाठ अष्ट है, (वस्तुत सह 'स्थानिन ' होना आाहिये)-ऐसा भो सोचा जा सकता है । भोज ने 'स्वामिन पद की कोई व्यास्या भी नहीं की, जत यह भ्रपादक या लिपिकर का प्रम्ाद है, ऐसा भी माना जा सकता है । (२१) ३५२ सूत्र में 'विवेकज्ञानम्‌' पाठ भोजव॒रत्ति के किसो-किसी सस्करण में है, पर यह अशुद्ध है, प्रकृत पाठ 'विवेकज' ही होगा । (२२) ४१५ में भोजवृत्ति के अनुमार 'विविक्त” पाठ है। भाष्यादि में “विभक्त' पाठ हैं । सर्थदृष्टि में दोनो हो सगत है । (२३) ४२४ “अपरिणामात्‌! मरह पाठ मुद्गित मिलता है। यहाँ प्रन्थ- स्वास्स्थ के अनुसार 'अपरिणामित्वात्‌” पाठ सगततर हैं और मोज भी इस पाठ के ही अनुयायी हैं, ऐसा माना जा सकता है 1 (२४) ४२४ भोजवृत्ति के अनुसार “निवृत्ति! प्राठ ही है, जब कि अन्य




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