कलकत्ता 85 | Kalakatta 85
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
152
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)खेल-खेत मे / 25
समय छोटे साहब का खाना पका रहा हूँ, इस समय पानी-वानी गरम नहों होगा***॥
मैंने कहा--यह कया ? तुम्हारे अपने महाराज ने तुम्हारे मूंह के ऊपर ऐसा जवाब
दे दिया ? तुम्हारी बहुओ ने वया कुछ भी नही कहा ?
पुखमय वोला--बहुएँ आधिर यों वोलेंगी ? वे तो पराये घर को बेटियाँ हैं ।
भला उनकी क्या गरज पड़ी है ?
मैंने कहा--यह तुम कया कह रहे हो सुखमय ?
सुखमय ने जवाब दिया--हाँ भाई, तुम्हारे सिवाय अपना दुषड़ा सुनाऊँ भी
किसे ? तुम्हारे सिवाय मेरे द.घो को और दूसरा समझ भी कौन सकता है ? मुहल्ले के
लोगों को बुला-बुलाकर उनसे तो मैंये बातें कह सकता नही । इसीलिए भाई, मैं अपने
घर से भाग कर सीधे तुम्हारे घर पर चला बाता हूं और सुख-दुघ की बातें सुनाकर जी
हल्का करने की कोशिश करता हूँ ।
कुछ देर दककर सुखमय फिर कहने लगा--और व्या सिर्फ गर्म पानी ३ जानते
हो भाई, एक दिन मैंने नौकर से कहा--आज बाजार जाकर केले का फूल खरोद कर
ले आंगो। आज उधी की सब्जी बनेंगी ।** ' जितने दिनो तक मेरी पत्नी जीवित थी, तब
तक वह केले के फूल और कच्चू-पत्ते की सब्जियाँ मेरे लिए विशेष रूप से बनाया करती
धथी। वह जानती थी कि मैं इन सब्जियों को कितना पसन्द करता हूँ । और फिर उन
सब्जियों को खाते से तन्दुरुस्ती भी ठीक रहती है। क्यो, ठीक कह रहा हूँ न ? सो बह
नौकर जब बाजार से लौटा, तब मैंने देखा कि वह् केले का फूल नही लाया था। मैंने
उससे पूछा--क्या तुम बाजार से केले का फूल खरीद कर नही लाये ? सो उसने मेरे
सवाल के जवाब में कया कहा, जानते हो २
या ?
सुखमय कहने लगा--नौकर ने जवाव दिया कि बडे साहब ने केले का फूल लाने
के लिए मना कर दिया है। मैंने अपने बडे लडके से इसके बारे में पूछा। मेरे सवाल के
जवाब मे मेरे बड़े लडके शिवदत्त ने कहा--घर मे कोई भी केले के फूल की सब्जी खाना
पसन्द नही करता । फिर खामख्वाह ऐसी सब्जी लाने से क्या फायदा ?**'अब तुम खुद
ही मेरी हालत का अन्दाज लगा लो ।
इस तरह के कितने उदाहरण सुखमय पेश किया करता, उनकी कोई गिनती न
थी । वे सारे के सारे उदाहरण आज मुझे याद भी नही ।
आपिरकार एक दिन मैंने सुबमप से कहा--मैंने तुम्हे जो सलाह दी थी, तुम
वैसा ही करो |
या ?
मैंने कहा--मैं तो तुभ से कह हो चुका हूँ कि तुम काशी चले जाओ | वहाँ तुम्हारे
जैसे बूढ़े आदमियों के लिए ही बिड़ला-बन्धुओं ने 'मुमुक्षु-भेवन” नाम का आश्रम बनवा
दिया है। काशी में सारी चीजें सस्ती मिलती हैं ॥ और फिर वहाँ पाताल--रेल का काम
भी नहीं चल रहा है। धूल, घुमों और डीजल-पेट्रोल की दुगेन्ध--कुछ भी नदी है वहाँ!
ओर फिर वह कानों को बहरा बना देने बाला शोर-गुल भी नहीं! खर्च भी है मामूली
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