गोपी विरह और भंवर गीत | Gopi Virah Aur Bhanvar Geet

Gopi Virah Aur Bhanvar Geet by प्रेमनारायण टंडन - Premnarayan tandan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४. व गोपी-विरह श्रौर -मैवरन्गीत की तिथियों का उल्लेख नहीं है। 'अत: सूर का काल जानने के लिए हमें झन्य साइयों पर ही निभर रहना पड़ेगा । २) मक्तमाल-इस अ्न्थ -की रचना सन्‌ १५८४५ ( सं० इस श्रंथ में अनेक भक्तों का परिचय मिलता हैं ओर सबका एक-एक छप्पय में ही किया गया हे। सूरदासजी के सम्बन्ध में भी निम्नलिखित एक ही छप्पय है । सूर कवित सुनि कौन कवि जो नहिं सिर चालन करे । उक्ति, चोज, श्रनुप्रास, बरन अस्थिति श्रति भारी 3 बचन प्रीति निदीइ अर्थ श्रदूसुत ठुक घारी॥ . प्रतिविषित दिबि दृष्टि इृदय हरि लीला. भासी। जनम करम गुनरूप सबे. रहना. परकासी॥ . . बिमल बुद्धि गुन श्रौर की, जो वद सुन श्रवननि घर । + कं सूर कवित सुनि कौन कवि जो नहिं हिर चालन करे।।# इस छुप्पय में सूर-काव्य की जो प्रशंसा की गयी हैं, उसके संबंध में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। हाँ, नाभादासजी के भक्तमाल से कवि सूर के जीवनवृत्त के विषय में हमें कुछ नहीं ज्ञात होता । हम केवल इतनाद्दी कह सकते हैं कि सन्‌, १४८५ ( स० १६४२ ) तक सूर के काव्य का पयोप्त अचार हो चुका था और काव्यरसिक उसका महत्त्व समभने लगे थे । चरित-उइस अंथ के रचयिता बाबा -.




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