महाबन्धो भाग 2 | Mahabandho Bhag 2

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Mahabandho Bhag 2  by फूलचंद्र सिध्दान्तशास्त्री - Fulchandra Sidhdant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२७ कर्ममीमासा क्रिया होती है, उनके सस्कार से युक्‍त कार्मण पुदूगल ओर (३) थे भाव जो कार्मण पुदुगलो भें सम्कार के ु ै, ता पा ४ स्पन्‍्दन क्रिया और भाव उसी समय निवृत हो जाते है, किन्तु सस्कारबुक्त कम पुदगल जीव के साथ घिर्काल तक सम्बद्ध रहते है। ये यथायोग्य अपना काम कके पे निशृतत हम ह। जे ये कालान्तर मे फल देने मे सहायता करते है, इसलिए इन्हे द्रव्यकर्म कहते 6 और इसी से इन - भेद में परिगणना की जाती है!। लय कु 02७ लि भवितव्य और देव ये द्रव्यकर्म के नामान्तर है ओर कही-कही इन नागो के अर्थ ॥ लक है-यत्‌ क्रियते तत्‌ कर्म” अर्थात्‌ जो किया जाता है घह कर्म है। सत्तारी ज़ीव के रागांदि परिणाम ओर सन्दन क्रिया होती हे, इसलिए ये दोनो तो उसके कर्म है हो, किन्तु कक निमित्त से कार्मण नामक पुदुगल कर्मभाव (जीव की आगामी पर्वाव के निमित्त भाव) को प्राप्त होते है, इसलिए इन्हे भी कर्म कहते है। कहा भी है- जीवपरिणामहेदु कम्मत्त॑ पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्भणिमित्त तहेव जीवो वि परिणमदि ॥ (समयप्राभृत, ८०) जीव के रागादि परिणामों का निमित्त पाकर पुदृगल कर्महप से परिणमन करते है ओर पुदृगल कर्मों का निमित्त पाकर जीव भी रागादि रूप से परिणमन करता है। यह कर्म (द्रव्य-कर्म) का सुस्पष्ट अर्थ है। इसके द्वारा हम ससार मे होनेवाती अपनी विविध अव्रत्याओं का नाता जोड़ते है। ४. कर्मबन्ध के हेतु हम देख चुके है कि जीव की, कायिक, वाचनिक और मानसिक तीन प्रकार की सन्दन क्रिया होती है। उसका नाम कर्म है। किन्तु यह क्रिया जकस्मात्‌ नही होती। इसके होने मे जीव के शुभाशुभ भाव कारण प्रति समय शुभ या अशुभ भाव होते है। कभी वह किसी को इष्ट मान उप्तमे राग करता है ओर कभी किसी को अनिष्ट मान उसमे द्वेष करता है। उसके इन भावों की सन्तति यही समाप्त नही होती, किन्तु वह प्रति समय अनेक प्रकार से प्रस्फुरित्त होती रहती है। प्राचीन चीन ऋषियो ने क्रिया के साथ इनकी पॉच जातियों मानी है-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग। की नाम रखना नामनिक्षेप हे। इसमे उस शब्द से होनेवाले क्रिया और गुण नहीं देखे जाते 1 उदाहरणार्थ-किसी का नाम महावीर रखने पर उ्तमे गुण-धर्म के जाते। एक पदार्थ की दूसरे पदार्थ में स्थापना 'र तदगुकूल वदन-व्यवहार करना स्थापनानिश्षेप है। उद्ाहरणार्थ-महावीर की प्रतिमा को महावीर मानना। द्रव्य की जो अवस्था आगे होनेवली है, उत्तका पहले कथन करन द्रव्यनिक्षेप है। यथा जी आगे आचार्य होनेवाला है, उस्ते पहले से आचार्य कहने लगना द्रव्यनिक्षेप है। तथा जो साधना सामग्री आगामी काझ मे कार्य के होने मे सहायक होती हे, उसका अन्तर्भाव भी द्रव्मनिक्षेप में होता है। वर्तमान अवस्था से युक्त पदार्थ को उसी नाम से पुकारा भावनिश्षेप है, यथा एढते समद अध्यापक कहना।




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