प्रतिध्वनि | Prati Dhvani

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Prati Dhvani by देवेन्द्र मुनि शास्त्री - Devendra Muni Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रतिध्वति & वेसी ही भर॒भराती आवाज गूंज उठी--'कायर ! डरपोक ! कहाँ छिपा है ?” राजकुमार के पेर डगमगा उठे, छाती धड़कने लग गई, उसके हाथ में कोई शस्त्र भी नहीं था, और अब निश्चय हो गया कि अवश्य ही कोई उसकी जान लेने के लिए छिपा बेठा है । उसने छाती को हाथ से दबाया और एक बार साहस वटोर कर खूब जोर से चिल्लाया--मैं मार डालेगा ।” पहाड़ियों से प्रतिध्वनि गूंज उठी--ैं मार डालूंगा ।! राजकुमार पसीने से तरवतर हो गया, सिर पर पांव रखकर दौड़ा आश्रम की ओर । उसके परों की प्रतिध्वनि ही उसे लग रही थी, जैसे वह दुष्ट उसका पीछा कर रहा है, पर मुड़कर देखने की हिम्मत उसमें नहीं रही । वह हांफता-हांफता आश्रम के द्वार पर पहुंचा और मूर्च्छा खाकर गिर पड़ा । आचार्य दौड़कर आये। राजकुमार का सिर गोदी में लेकर जल छिड़का। राजकुमार होश में आया तो उसने सब वात सुनाई । मानव-मन के पारखी आचार्य ने मुक्‍्तहास के साथ कहा--वत्स ! तुम उससे कंसे डर गये ? वह तो बहुत ही भला आदमी है, किसी चींटी को भी कष्ट नहीं, देता, बच्चों से तो वह बहुत ही प्यार करता है। तुम कल फिर वहीं जाना और जेसा मैं कहूँ वैसा पुकारना ।”




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