निमंत्रण | Nimantran

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Nimantran by भगवतीप्रसाद वाजपेयी - Bhagwatiprasad Vajpeyi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जिमंत्रण २१ पूणिमा बोली--दो घूँट पीकर वत्॒लाइय्ेगा, तो जजमेंट भ्ोर नी भविक बर्लेंस्ड रहेगा । हि धर्म्माजी समझ गये, ये लोग इस समय वार्तालाप में गम्भीर कितते हैं । तब थे सचमुच दो घट पीफर बोल उठे--मभाफ कीजियेगा, अगर आप स्था- सीय,काफेड्डी-नवस की मलका होतों, तो मैं श्रापके यहाँ चाय पीने नित्य आया करता | एकाएक मालती और पूर्णिमा ने ताली पीट दी। हाथ उठाऊर एक नमस्कार (सलाम) के साथ प्रफुल्लित तारिणी बोली--शुक्रिया | (दाँतों में जिद्ला ले जाकर) नही, घन्यवाद ! **” पर झाषकों मासूम होता चाहिए शर्म्माजी कि मेरा छोटा भाई मसूरी में एक होदत का ही विजुनेश कर रहा है। आशचम के माय शर्म्माजी बोले--अ्रच्छा ? और उत्साहित पूर्णिमा कहते लगी--ओोर मैंने भी दर्म्माजी हास्यरत की मुंछ कहानियाँ लिख रकसी हैं) कभी श्रापको दिसलाऊँगी ) लेकिन* *अ्च्छा, अब आप श्ार्पेंगे कब ? “चारह वर्ष के बाद इसी बार श्रायें हैं ।” मालती कुछ इस तरह बोली जैसे कुछ कहते-कटते रुक गयी हो । “तो शंकरजी का-सा फेंटा होता है श्रापफा !” पू्िमा हँसते-टेंसते बोल उठी--०बह बात है! लेकिन प्रावंतीजी को भी साथ रखा कीजिये, तो श्रच्छा हो 1” इस क्षण श्म्मोजी के सामने आज की दुग्ण, अत्वस्थ और विड्चिड़ों रेणु जँसे समक्ष श्राकर सडी हो गयी । और इसी क्षण मातती ने कह दिया-- सो इस बार भी ये अपने मत से थोड़े ही अप्ये हैं । में ही! जबरदस्ती खीच लायों हूँ । माँ बोौली--खैर, किसी तरह सही। इतनी कृपा क्‍या कम है कि आये तो +




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