जय सोमनाथ | Jay Somnath

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Jay Somnath by कन्हैयालाल - Kanhaiyalal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दंबी प्रकोप 22 नर्तकी नहीं हूं, शिव-निर्माल्य हूँ । इसी लिए तो शिव पर चढे हुए फूछ को मैंने भी मस्तक वर घढ़ाया है | और छे, मैं मूंह फेरकर खड़ा हो जाता हूँ, तू कपड़े पहन छे ।/ भीमदेव हँसता हुआ मुंह फेरकर खड़ा हो गया । घवराहट में घारों ओर देखती हुई चौडा ने जंसे-तैसे कपड़े पहने | काप्रालिक के भय और वस्त्रह्वीनता की छज्जा के कारण उसका हृदय अभी तक ठिकाने नही आयाया। अब मैं मुटूं ? 'हाँ, मुडे,' चौटा ने उत्तर दिया 1 “अच्छा हुआ कि मैं यहाँ था, नहीं ती **! “आपको कालमुसे का डर नही छगा ? वह मर गया, न जाने इससे बया होगा ? ऐसे भयकर अधोरी को छूने का साहस आपको कंसे हुआ, यह तो महादेवजी ही जाने । क्या भगवान्‌ अपनी नर्तकी को कभी भूछ सकते हैं ?” भीमदेव फिर हँसा और चौटा पास आई । “आप बड़े साहसी है ।' “तू कहती है, इसलिए मुझे विश्वास होता है।' “मैं अब जाती हूँ | आप यहाँ कब तक हैं. “मैं ? मुझे तो भगवान्‌ ने इतने ही कार्र ने तिए भेजा था; मैं की वापस जाता हूँ ।' 7 “इस समय कहां जाते हैं? ववाटण ।' लेकिन आज सबेरे ही तो जाता है ?” चौला हेमी--पहत रा रमणीयता सहखधा होती डर “किसीसे न कहो हो “नही रहेंगी । ऐश या है




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